Uttarakhand History (उत्तराखण्ड का इतिहास ): UKSSSC/UKPCS में पूछे जाने वाली उत्तराखण्ड इतिहास से सम्बन्धित पूछे जाने वाली प्रश्नों पर आधारित उत्तराखण्ड सामान्य ज्ञान की सीरीज के क्रम में इस पोस्ट ‘Uttarakhand History (उत्तराखण्ड का इतिहास )’ के माध्यम से जानकारी उपलब्ध करवायी जा रही है। Uttarakhand History (उत्तराखण्ड का इतिहास ) Share and follow for more information related to exam content.

उत्तराखण्ड का ऐतिहासिक अध्ययन
उत्तराखण्ड की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं पौराणिक महत्ता की भांति ही यहां का इतिहास भी मानव सभ्यताओं के विकास का साक्षी है। नैसगिक सुविधाओं के साथ-साथ यह क्षेत्र आध्यात्मिक रुप से आर्य सभ्यता और संस्कृति का केद्र रहा है। मान्यता है कि पृथ्वी के जलप्लावन के जलप्लावन के पश्चात् जिस मनोरम ब्रह्मावर्त के अति निकट है। आदि-मानव ने यहीं मानव-जीवन प्रारम्भ किया था। बद्रीनाथ के समीप गणेशगुफा, नारदगुफा, मुचुकुन्दगुफा, व्यासगुफा तथा स्कंदगुफा है। ये वे ही गुफायें हैं, जहां वेदों और पुराणों की रचना हुई है।
देवकालीन शासन व्यवस्था
दक्ष प्रजापति सर्वप्रथम आर्य नरेश थे। महावन पर्व 84-30, 90-22 अनु0 25-13 शान्ति0 284-3 के अनुसार उनकी राजधानी गढ़वाल के दक्षिण कनखल में थी।
देवकालीन शासन व्यवस्था का अध्ययन करने से उस समय के चार प्रकार के शासन क्षेत्रों का पता चलता है-
कैलाश- कैलाश के केदार क्षेत्र तक भाग फैलाव खण्ड में आता है। इसी क्षेत्र की महानता के कारण बाद में इस सारे भू-भाग का नाम केदारखण्ड पड़ा। ’हिमालय परिचय’ की भूमिका में महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन भी केदारखण्ड को अति प्राचीन मानते हैं।
अल्कापुरी
दूसरा शक्ति संपन्न राज्य अल्कापुरी था। ब्रह्मावर्त तक बद्रीनाथ और अलकनंदा के स्त्रोत, सतोपंथ के मध्य का भाग अल्कापुरी था। पुराणों में माणा का नाम मणिभद्र लिखा है। पुराणों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि उस क्षेत्र में सिद्ध, गंधर्व, यक्ष और किन्नर जातियां थी और उनका राजा कुबेर था।
अलकनंदा के लिए ऋग्वेद में हिरण्यवर्तिनी कहा गया है। यह क्षेत्र अति प्राचीन सप्तसिंधु है। अतः ऋग्वेदिक कार्यों की सिंधु, अल्कापुरी की अलकपंदा ही थी।
देवपुरी
तीसरा राज्य देवपुरी, कैलाश मानसरोवर के दक्षिण-पश्चिम और अल्कापुरी के उत्तर-पूर्व में था। देवपुरी के निवासी देव, गंधर्व तथा किन्नर थे। इंद्र उसका राजा था। यहां कर्म की प्रधानता थी।
हिमक्षेत्र
चौथा क्षेत्र अल्कापुरी से मिला हुआ दक्षिणी पश्चिमी हिमक्षेत्र था। इस भाग का राजा हिमालय या पर्वत था। कैलाशपित शिव की पर्वतराज से काफी समानता थी।
सप्त सिंधु नदियां
क्रम सं. | नाम |
1 | अलकनन्दा |
2 | धौली (धवल्य) |
3 | नन्दाग |
4 | पिंडारक |
5 | मंदाकिनी |
6 | गंगा (भागीरथी) |
7 | नयार (नवालिका) |
ऋग्वेद में सरस्वती का इन सात नदियों के अतिरिक्त बताया गया है जो बद्रीनाथ के निकट माणा दर्रे के रत्ताकोना नाम स्थान पर स्थित देवताल से निकलकर केशवप्रयाग में अलकनन्दा (विष्णुगंगा) से संगम बनाता है। सरस्वती बद्रीनाथ के समीप है।
उत्तर वैदिक काल
- इस काल में आर्यों के छोट-छोटे राज्य थे। इनमें दो वंश प्रसिद्ध हुए । पहला मानव (मनु) से सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। सूर्यवंश के प्रथम राजा मनु का पुत्र इक्ष्वाकु हुआ।
- चंद्रवंश का प्रथम राजा पुरूरवा था। इनकी चौथी पीढ़ी में ययाति हुआ। इनके पांचो पुत्रों ने पांच शाखा वंश चलाए, जिनमें यदु के यादव तथा पुरू के पौरव हुए। इसी शाखा में महाप्रतापी राजा भरत हुए। उन्ही के नाम से हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
- भरत का जन्म शकुंतला के गर्भ से हुआ था। शकुंतला का जन्म कण्व ऋषि के आश्रम मालिन नदी के तट पर गढ़वाल जनपद में कोटद्वार के समीप माना गया है। महिर्ष कण्व के पिता अप्रतिरथ तथा ज्येष्ठ भ्राता ऐलीन थे। ऐलीन के पुत्र दुष्यन्त तथा दुष्यन्त के पुत्र भरत थे, अतः भारतवर्ष को नाम देने वाला भरत उत्तराखण्ड का ही पुत्र था।
- रामायण में भी कई जगह कोल-किरात जातियों का उल्लेख हुआ है। योगवशिष्ठ से भी विदित होता है कि राजचंद्र जी ने बद्रीनाथ एवं केदारनाथ की यात्रा की थी। अतः रामायणकाल में भी उत्तराखण्ड का विशिष्ट स्थान रहा है। रामायणकाल को त्रेता युग भी कहा जाता है।
- महाभारत वन पर्व के अनुसार उस समय उत्तराखण्ड में तंगण, किरात और पुलिंद जातियों का आधिक्य था। उनमें सबसे अधिक शक्ति संपन्न राजा सुबाहु था, जिसकी राजधानी श्रीुपर (श्रीनगर) थी।
- उस समय की दूसरी शक्ति महाराज विराट थे। उनक राजधानी वैराटगढ़ी थी, जो आज भी जौनसार भाबर के कालसी नामक स्थान में है। विराट की पुत्री उत्तरा का विवाह अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु से हुआ था।
- तीसरी शक्ति वाणासुर का राज्य था। बाणासुर शिव-पार्वती का बहुत बड़ा भक्त था। बाणासुर के पूर्वज हिरण्यकश्यप का राज्य पैनखण्डा में था और उसकी राजधानी ज्योतिषपुर में थी।
पांडव राज
महाभारत संभवपर्व के अनुसार पांडव, बद्रीनाथ धाम के पास पांडुकेश्वर में पैदा हुए थे। पांडवों ने वृद्धावस्था में परीक्षित को अपना राज्य देकर केदारनाथ मंदिर के ऊपर जाकर स्वर्गारोहिणी पर्वत पर अपना शरीर छोड़ दिया। स्कंदपुराण (केदारखंड) के अनुसार वर्तमान बाड़ाहाट ही वर्णावत (उत्तरकाशी) स्थान है, जहां लाक्षागृह बनाकर दुर्योधन ने पांडवों को जलाना चाहा था। ’पंडो’ नामक नृत्य तो एक ऐसा उदाहरण है, जो पांडवों की इस भूमि से सन्निकटता थी, आत्मीयता भी दर्शाता है। उत्तराखण्ड का जनसमुदाय पांडवों को देवताओं के रुप में पूजता है।
उत्तराखण्ड का इतिहास भाग (मध्यकाल)
उत्तराखण्ड का पौराणिक इतिहास क्रमबद्ध रूप से नहीं मिलता है। महाभारतकाल के पश्चात् जो कुछ भी इतिहास मिलता है, वह पाणिनि के अष्टाध्यायी ग्रंथ से प्राप्त है। पाणिनि ने कुलिंद गणराज्य का उल्लेख विक्रम ईसा पूर्व पांचवीं सदी में किया था। यह राज्य में सतलुज, यमुना, गंगा और काली नदी की जलागम में फैला हुआ था। इस राज्य में 06 छोटे-छोटे प्रदेश थे, जिनका विस्तार इस प्रकार मिलता है-
- तमसा (टोन्स नदी) उपत्यकाः वर्तमान जौनसार बावर।
- कलकूट (कलकूट-कालसी)ः यमुना की दक्षिणी जलागम-वर्तमान देहरादून जिले का मैदानी भाग।
- तंगण (टंकण): वर्तमान चमोली और उत्तरकाशी का भोटांतिक क्षेत्र।
- भारद्वाजः वर्तमान टिहरी गढ़वाल और पौड़ी गढ़वाल जनपद।
- रंकुः पिंडर नदी की ऊपरी जलागम और पिथौरागढ़ जनपद का भोटांतिक क्षेत्र।
- आत्रेय (गोविषाण): वर्तमान नैनीताल, ऊधमसिंहनगर और अल्मोड़ा जनपदों का क्षेत्र।
कुणिंद नरेश बौद्धधर्म को मानने वाले थे। अतः गढ़वाल-कुमाऊँ के क्षेत्र में उस समय बौद्ध धर्म का खूब प्रचार-प्रसार हुआ। कुणिंदो की एक शाखा में उग्रसेन-महापद्म का जन्म हुआ था। इसी महापद्म में मगध में नंदवंश की स्थापना की थी। ईसा की तीसरी शताब्दी तक गढ़वाल-कुमाऊँ का कुणिंद साम्राज्य छिन्न-भिन्न होकर छोटे-छोटी ठकुराइओं वाले राज्यों मं बंटकर रह गया था।
समुद्रगुप्त का राज्य
समुद्रगुप्त का राज्यारोहण सन् 340 ई. में हुआ था। उस समय तक कर्तुपुर (वर्तमान में जोशीमठ) में खस राजा पूर्णतः अपना शासन स्थापित कर चुके थे। कार्तिकेयपुर के खस राजा से समुद्रगुप्त के पुत्र चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसकार राज्य हस्तगत कर लिया था। विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त) के राज्यकाल में स्कंदगुप्त के राज्यकाल तक संपूर्ण गढ़वाल-कुमाऊ क्षेत्र गुप्त शासकों के अधीन रहा। सन् 606 ई. में स्थाण्वीश्वर के सम्राट हर्ष ने सारे गढ़वाल-कुमाऊ के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। सन 647 ई. में हर्ष की मुत्यु के बाद पुनः स्थानीय शासक स्वतंत्र हो गए और स्वेच्छा से अपना-अपना शासन करने लगे। उस समय गढ़वाल-कुमाऊँ क्षेत्र को ब्रह्मपुर कहा जाता था।
कत्यूरी शासन
- सन् 740ई. में 1000 ई. तक गढ़वाल-कुमाऊँ पर कत्यूरी वंश के तीन परिवारों का एकछ़त्र शासन रहा। इनकी राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) में थी। कत्यूरी राजाओं वसन्तन, खर्पर, त्रिभुवराज, निम्बर, इष्टागण, ललितसुर, सलोणादित्य, देशट और सुभिक्षराज प्रमुख थे।
- कत्यूरी शासन में कला-कौशल की विशेष उन्नति हुई। इस काल में ज्योतिष, आयुर्वेद, संस्कृत साहित्य तथा तंत्र-मंत्र साहित्य का काफी प्रचार-प्रसार हुआ। कत्यूरी शैली के मंदिर उस समय की महान देन है।
- सन् 1000 ई. के आसपास ही कत्यूरी राजाओं ने कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) से अपनी राजधानी हटाकर कुमाऊँ के बैजनाथ में स्थापित करदी थी। बैजनाथ के कत्यूरी पराक्रमी नहीं थे। वे एकछत्र शासन नहीं रचा सके। इस प्रकार नियंत्रण ने रहाने के कारण पुनः गढ़वाल-कुमाऊँ में छोटे-छोटे ठकुराइयों का राज्य हो गया।
- आदि शंकराचार्य सन् 820 ई. के लगभग केदारथाथ पहुंचे। इससे पूर्व बद्रीनाथ मंदिर में उन्होेने विष्णु की मूर्ति (श्रीविग्रह) को नारदकुंड से निकालकर प्रतिष्ठापित किया और केदारनाथ धाम में ही उन्होंने ने अपना देह त्याग दी।
- कत्यूरी शासकों ने आदि शंकराचार्य की शिक्षाओं का पूरा-पूरा पालन किया। उन्होंने हर क्षेत्र में शिवमंदिर, विष्णुमंदिर और देवी के मंदिरों का कलापूर्ण पत्थरों से निर्माण कराया। आदि शंकराचार्य के आगमन के बाद संपूर्ण भारत से धर्म पर अटूट श्रद्धा रखने वाले लोग इस क्षेत्र में आने लगे और अनेक यहीं बस गए।
- इसी समय चांदपुर गढ़ी में अलग स्वतंत्र राज्य अस्तित्व में आ गया था। दक्षिण में मोरध्वज तथा बह्मपुर राज्यों का उदय होने के साथ ही बाहरी आक्रमण से पराजित हुए राजा या कट्टर धार्मिक भावना के लोग भी गढ़वाल-कुमाऊँ की आरे आने लगे। 9वीं शताब्दी तक ऐसे कई गढ़ों पर ऐसे कई राजाओं का राज्य हो गया।
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