स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखण्ड की भूमिका

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स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संघर्ष को याद करने का दिन है स्वतंत्रता -  independence-is-the-day-to-remember-the-struggle-of-freedom-fighters - Nari  Punjab Kesari

स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखण्ड की भूमिका-अंग्रेजों की गुलामी के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम में देश के कई वीरों ने अपना बलिदान दिया। इसी क्रम में स्वाधीनता संग्राम में उत्तराखण्ड की भूमिका भी अतुल्यनीय रही। UKSSSC/UKPCS की प्रतियोगी परीक्षाओं में ” स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखण्ड की भूमिका” से सम्बधित महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे जाते हैं। उन सभी प्रश्नों की तैयारी के लिए इस पोस्ट ( स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखण्ड की भूमिका ) से परीक्षाओं की तैयारी के लिए हिन्दी में क्रमवार उपलब्ध करवाया गया है।

राष्ट्रीय स्वतंत्रता स्वाधीनता में उत्तराखंड के निवासियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक भारतवर्ष, ब्रिटिश शासकों की दमनकारी नीतियों के कारण गुलामी की जंजीरों में पूरी तरह जकड़ चुका था। यद्यपि 1857 का विद्रोह कहीं कारणों से विफल हो गया था किंतु यह पराधीनता से मुक्ति का शंखनाद कर गया।

स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ

  • उत्तराखंड में इस विद्रोह का सूत्रपात करने का श्रेय काली कुमाऊं के वीर नेता “कालू मेहरा” को जाता है जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध एक गुप्त संगठन की स्थापना की थी, राष्ट्रद्रोही तत्वों की मुखबिरी के कारण ब्रिटिश शासकों द्वारा समाप्त कर दिया गया था। 1903 में अल्मोड़ा में हरगोविंद पंत तथा गोविंद बल्लभ पंत ने “हैप्पी क्लब” की स्थापना कर स्थानीय युवकों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करने का प्रयास किया था।
  • 1905 में देहरादून में “गढ़वाली” नामक साप्ताहिक पत्र के प्रकाशन से समाज में राष्ट्रीय भावनाओं का संचार होने लगा। इसी वर्ष बंगाल विभाजन का अल्मोड़ा में भी घोर विरोध प्रदर्शन हुआ, जिससे ब्रिटिश शासकों की दमनकारी नीतियों का प्रभाव उत्तराखंड पर भी पड़ने लगा था।

स्वतंत्रता संग्राम की योजनाएं

  • 1912 में प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस के नेतृत्व में देहरादून में आयोजित एक गुप्त बैठक में निर्णय लिया गया कि दिल्ली में लॉर्ड हार्डिंग पर बम फेंका जाए। यद्यपि हार्डिंग के बच निकलने से यह योजना विफल हो गई, तथापि अंग्रेजों के प्रति विरुद्ध विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी।
  • सन 1912 में ही कुमाऊं में “कांग्रेस” की स्थापना की गई। “अल्मोड़ा अखबार”, जो 9871 से सामाजिक चेतना का माध्यम था, सन 1913 में कुमाऊं केसरी पंडित बद्री दत्त पांडे के संपादक में राष्ट्रीय चेतना का मुखपत्र बन गया।
  • 1914 में मोहनजोशी, हेमचंद्र, चिरंजीलाल तथा बद्रीदत्त पांडे ने “होमरूल लीग” की शाखा की स्थापित की। इसी क्रम में 1916 में “कुमाऊं परिषद” की स्थापना के साथ संपूर्ण कुमाऊं कमिश्नरी में राष्ट्रीय आंदोलन का जोर पकड़ने लगा।
  • इस परिषद ने कुली उतार, कुली बेगार, कुली पर्दायश आदि दमनकारी प्रथाओं का विरोध किया। 1916 में महात्मा गांधी के अफ्रीका से लौटने पर 1917 में अल्मोड़ा तथा नैनीताल में स्वराज सभाएं आयोजित की गई।
  • राष्ट्रीय चेतना जागृत होने पर, कुमाऊं और गढ़वाल दोनों मंडलों में युवा नेतृत्व उभरकर स्थानीय युवा शक्ति ने स्वाधीनता का संचार होने लगा।
  • इन युवाओं में मोहन जोशी, रामसिंह धोनी, गोविंद बल्लभ पंत, बद्री दत्त पांडे, हरगोविंद पंत, अमर शहीद श्रीदेव सुमन, नायक चंद्रसिंह गढ़वाली, गढ़केसरी श्री अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, जगमोहन सिंह नेगी, नारायणदत्त तिवारी, चिरंजीलाल, श्रीमती दुर्गा पंत, कुंती वर्मा, पदमा जोशी, बिसनीशाह आदि प्रमुख हैं।
  • 1918 में “रोलेट एक्ट” पास होने पर कुमाऊं में हल्द्वानी तथा गढ़वाल में देहरादून में इस एक्ट को रद्द करवाने के प्रस्ताव पारित किए गए। 1919 में इसी एक्ट का राष्ट्रीय स्तर पर अमृतसर के कांग्रेस अधिवेशन में घोर विरोध किया गया था, जिसमें दो प्रमुख नेताओं बैरिस्टर मुकंदी लाल तथा अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने कुमाऊं गढ़वाल का प्रतिनिधित्व किया।
  • उनके लौटने पर कुमाऊं की भांति गढ़वाल क्षेत्र में भी राजनीतिक सक्रियता बढ़ने लगी, जिसे तारादत्त गैरोला, चंद्रमोहन रतूड़ी, डॉक्टर पातीराम, कुलानंद बड़थ्वाल, सोहन सिंह रावत, छवांणसिंह नेगी, विश्वंभरतदत्त चंदोला जैसे विभिन्न क्षेत्रों के प्रभावशाली व्यक्ति राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से जुड़ गए।

सन् 1921 का दौर

  • सन 1921 में “कुमाऊं परिषद” के ऐतिहासिक निर्णय द्वारा कुली उतार, कुली बेगार तथा कुली बर्दायश को प्रथाओं के विरुद्ध आंदोलन का प्रस्ताव पारित होने पर 14 अगस्त 1921 को मकर संक्रांति के पर्व पर कुमाऊं के प्रसिद्ध तीर्थ बागेश्वर में लगभग 40 हजार क्रांतिकारियों ने पंडित बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत और चिरंजीलाल के नेतृत्व में कुलियों के नामावली रजिस्टर फाड़कर सरयू की पवि़त्र धारा में बहा दिए, जिससे अंग्रेजों के विरुद्ध सहयोग की पहली ईंट रखी गई और स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति का सूत्रपात हुआ।
  • इसी वर्ष राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी बागेश्वर आए और उन्होंने यहां स्वराज आश्रम की आधारशिला रखी। इसी अवसर पर चंद्रसिंह गढ़वाली ने गांधी जी के हाथों से गांधी टोपी पहना कर शपथ ली कि एक ना एक दिन इसकी कीमत चुकायेंगे है।
  • ‘गढ़वाली’ ने 23 मार्च 1930 को पेशावर में, निहत्थे पठान सत्याग्रहियों पर अंग्रेज कमांडर की गोली चलाने के आदेश को ठुकरा कर सैनिक विद्रोह की नींव डाल दी तथा इसके दंड स्वरूप चंद्र सिंह गढ़वाली को आजीवन कारावास देकर काला पानी भेज दिया गया।

सन् 1930 में आंदोलन का दौर

  • 1929 में प्रसिद्ध आर्यसमाजी नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन तीव्र वेग से भड़क उठा, सैकड़ों गिरफ्तारी दी गई। सन 1930 का वर्ष स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण रहा। 26 जनवरी 1930 को टिहरी रियासत को छोड़कर समस्त उत्तराखंड में राष्ट्रीय झंडा फहरा कर प्रथम स्वतंत्र दिवस मनाया गया।
  • 1930 में ही गांधी जी द्वारा साबरमती से दांडी तक नमक सत्याग्रह यात्रा में उत्तराखंड से ज्योति राम कांडपाल, भैरवदत्त जोशी और खड़क बहादुर ने भाग लिया। कुमाऊं में भी नमक बनाकर सत्याग्रह चलाया गया।
  • इसी वर्ष गढ़वाल जनपद के दुगड्डा नामक स्थान पर ब्रिटिश गढ़वाल का पहला राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया गया। टिहरी जनपद तत्कालीन राजशाही की दासता में पिस रहा था परंतु वहां भी जनाक्रोश भड़क उठा और राष्ट्रीय जन चेतना की किरणें वहाँ भी पहुंचने लगी।
  • 30 मई 1930 का तिलाड़ी कांड जिसमें 70 व्यक्ति मारे गए। 1929 से लेकर 1933 के मध्य क्रांतिकारी आंदोलन चरम सीमा पर था।
  • इसी मध्य महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद, पर्वतीय क्रांतिकारियों के साथ पिस्तौल चलाने का प्रशिक्षण लेने दुगड्डा आए थे। हरिजनों के शोषण के विरुद्ध चले डोला पालकी आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन को सशक्त किया, जिसमें जयानन्द भारतीय, भक्तदर्शन, वासवानंद मिश्र तथा आदित्यराम दुदपुड़ी ने सक्रिय भूमिका निभाई।

स्वाधीनता की शुरूआत

  • 23 फरवरी 1938 को टिहरी रियासत में प्रजा के हितों की रक्षा के लिए “प्रजामंडल” की स्थापना की गई। इसमें नागेंद्र सकलानी, श्रीदेव सुमन, टेकराम जोशी, परिपूर्णानंद पैन्यूली प्रमुख रुप से टिहरी राजशाही के दमनचक्र का विरोध करते हुए कई बार जेल गए।
  • 5-6 मई, सन् 1938 को श्रीनगर गढ़वाल में कांग्रेस का वृहद् राजनीतिक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित जी ने भाग लिया। इस सम्मेलन में टिहरी तथा ब्रिटिश गढ़वाल के एकीकरण करने का प्रस्ताव पारित किया गया।
  • 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन का वर्ष रहा। 19 अगस्त 1942 को उत्तराखंड के सत्याग्रहियों पर अल्मोड़ा के देघाट स्थान पर गोलियां बरसाईं, जिसमें 2 व्यक्ति मारे गए। इसी प्रकार सालम तथा सल्ट क्षेत्र में भी कई अमूल्य प्राण भारत छोड़ो आंदोलन की भेंट चढ़ गए। सल्ट क्षेत्र के आंदोलन को गांधी जी द्वारा बारदोली की संज्ञा दी गई।
  • पौड़ी गढ़वाल में भी युवा क्रांतिकारियों ने स्थान-स्थान पर जनता की अदालतों की स्थापना की। स्वयं सेवकों की भर्ती की जाने लगी और प्रशिक्षण शिविर चलने लगे। ब्रिटिश शासकों ने व्यवस्था हाथ से निकलती देख दमन चक्र शुरू कर दिया। सामूहिक जुर्माना, गोलीकांड तथा गिरफ्तारियां कर के आंदोलन को कुचलने के प्रयास किए गए।
  • स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा संगठित आजाद हिंद फौज की भूमिका में अंग्रेजी राज्य के लिए कफन का कार्य किया।
  • आजाद हिंद फौज में उत्तराखंड के निवासियों की शौर्य परंपरा तथा मातृभूमि प्रेम का आकलन कर नेताजी ने उन्हें महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व देकर देश के प्रति समर्पण की प्रेरणा दी।
  • “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा” के उद्घोष ने गढ़वाल के वीरों को अत्यधिक प्रोत्साहित किया। आजाद हिंद फौज के 23, 226 भारतीय सैनिकों में 2500 सैनिक गढ़वाली थे। इनमें से 800 सैनिकों ने वीरता प्रदर्शित करते हुए मातृभूमि के लिए अपना बलिदान दिया।

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