गढ़वाल का इतिहास: उत्तराखण्ड के इतिहास के अन्तर्गत समस्त प्रतियोगी परीक्षाओं में गढ़वाल का इतिहास व कुमाऊँ के इतिहास से महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे जाते हैं। उन्हीं परीक्षाओं की तैयारी के लिए गढ़वाल का इतिहास की सम्पूर्ण जानकारी हिन्दी में। (गढ़वाल का इतिहास)
पँवार वंश
चाँदपुर गढ़ी में भानुप्रताप का नाम का राजा था। उसकी दो कन्याएं थी। कहते हैं कि धारानगरी (गुजरात) निवासी, पंवार वंश का राजकुमार कनकपाल सन् 612 ई. में चाँदपुर गढ़ आया। वह बद्रीनाथ, केदारनाथ आदि तीर्थ स्थलों के दर्शनों का उद्देश्य लेकर इस क्षेत्र में आया था, किंतु संयोगवंश चाँदपुर गढ़ी के राजा भानुप्रताप ने उससे अपनी छोटी पुत्री का विवाह कर दिया और कुछ समय बाद अपनी राजगद्दी भी दे दी। इसीलिए वह पंवार वंश का संस्थापक माना जाता है।
पहले वह चाँदपुर से देवलगढ़ में राजधानी लाये और फिर उन्होंने सन् 1517 ई. में श्रीनगर में अपनी राजधानी स्थापित की। गढ़वाल की सीमा का निर्धारण भी राजा अजयपाल ने ही किया था। गढ़वाल में आज भी ’अजैपाली ओडो (सीमा निर्धारक) कहावत प्रसिद्ध है। उन्होंने सन् 1500 ई. में सन् 1519 तक शासन किया।
1625-1646
अजयपाल के बाद सहजपाल, बलभद्रपाल (शाह), मानशाह, सामशाह और महीपतशाह का शासन संघर्षपूर्ण रहा। ’पाल’ शब्द 43वें नरेश बलभद्रशाह तक रहा, उनके द्वारा शाह पद ग्रहण करने के बाद सभी नरेशों ने शाह प्रशस्ति को धारण किये रखा। महीपतशाह के राज्यकाल (सन् 1625-1635) में संघर्ष को शांत करने के लिए माधोसिंग भंडारी और लोदी रिखोला दो वीरों को भोट भेजा गया। वे वहां से विजय प्राप्त करके लौटे थे। महीपतशाह के मृत्यु के बाद उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह के नाबालिग होने के कारण उनकी पत्नी कर्णावती ने सन् 1635 से 1646 तक शासन की बागडोर सँभाली। सन् 1936 में शाहजहाँ के सेनानायक नवाजात खाँ ने देहरादून पर अधिकार कर लिया था, परंतु रानी कर्णावती ने सैनिकों ने उन सबके नाक काटकर भगा दिया था। इसीलिए रानी कर्णावती को ’नाक-कटी’ रानी के नाम से भी जाना जाता है।
1646-1664
पंडित तारादत्त गैरोला ने अपनी पुस्तक ‘हिमालयन फोक लोर’ की भूमिका में सन् 800 से 1700 ई. तक का युग, गढ़वाली वीरों का युग माना है। छोटे-छोटे राजा आपस में लड़ाइयां करते रहते थे। इसीलिए प्रत्येक राजा को योद्वा (माल) रखने पड़ते थे। रानी कर्णावती के पुत्र पृथ्वीपति शाह (1646-1664) के समय में भी कई ’योद्धा’ थे।
सन् 1658 में उनके दरबार में औरंगजेब के बड़े भाई दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह ने शरण ली थी। पृथ्वीपतिशाह के पुत्र मेदनीशाह की सन् 1661 में मृत्यु हो गई थी, अतः पृथ्वीपतिशाह ने सन् 1664 में फतेशाह का अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। फतेशाह ने महान् पराक्रमी और साहित्यिक अभिरूचि का राजा था। उसके दरबार में मतिराम, रतनकवि, जटाधर और भूषण आदि प्रसिद्ध कवि रहे थे। उन्होंने 1716 ई तक राज्य किया। उनकी राजधानी श्रीनगर थी। इसी अवधि में 1699 ई .में गुरू रामराय श्रीनगर दरबार में आए थे। महाराजा फतेशाह ने देहरादून के सात गाँव उन्हें उपहार में दे दिए। गुरू रामराय ने दून में डेरा डाला। तभी से इस जगह का नाम ’डेरादून’ या देहरादून पड़ गया।
1664-1786
फतेशाह (1664-1716) के बाद उनके पुत्र उपेन्द्रशाह ने केवल आठ माह (1716-1717) तक शासन किया और उनकी मृत्यु के बाद उनके पाँच वर्षीय पुत्र प्रदीपशाह (1717-1772) को गढ़वाल का राजा घोषित कर दिया गया । सन् 1742 ई. में रोहिला सरदार रहमत खाँ ले कुमाऊँ पर अपना अधिकार कर लिया।
कुमाऊँ के प्रमुख राज-अधिकारी, हर्षदेव जोशी और जयानंद जोशी ने तत्कालीन गढ़वाल के महाराजा ललितशाह (1772-1780) से आग्रह किया कि वह कुमाऊँ पर आक्रमण कर दें और राजा अपने पुत्र प्रद्युम्नशाह को कुमाऊँ की राजगद्दी पर बिठा दें। सन् 1779 ई. में गढ़वाली सेना ने कुमाऊँ के राजा मोहनचंद की सेना को बागवाली की पोखर लड़ाई में परास्त कर दिया। इस प्रकार प्रद्युम्नशाह गढ़वाल (1786-1804) के साथ-साथ कुमाऊँ(1779-1786) का शासक भी बन गया।
गोरखा शासन
सन् 1780 में ललितशाह की मृत्यु हो गई। उनका ज्येष्ठ पुत्र जयकृत शाह गढ़वाल की राजगद्दी पर बैठा और उसने 1786 तक राज्य किया, किंतु उसे अधिकारियों के षड्यंत्र का शिकार होना पड़ा और देवप्रयाग के उसकी मृत्यु हो गई। तब प्रद्युम्नशाह कुमाऊँ से गढ़वाल आ गए और उन्होंने गढ़वाल के राजसिंहासन पर अधिकर कर लिया। इधर प्रद्युम्नशाह के गढ़वाल आते ही मोहनचंद पुनः कुमाऊँ के शासक बन बैठे। प्रद्युम्नशाह को छोटा भाई पराक्रमशाह राजगद्दी प्राप्त करने के लिए षड्यंत्र पर षडयंत्र करता रहा, जिससे प्रद्युम्नशाह को कई संकटों का सामना करना पड़ा।
गोरखाओं का आक्रमण
इससे कुमाऊँ में भी काफी अव्यवस्था फैल गई थी। अतः हर्षदेव जोशी के निमत्रंण पर सन! 1790 ई. में नेपाली गोरखा सेना ने गोरखा नरेश रणबहादुर के नेतृत्व में कुमाऊँ पर आक्रमण कर दिया तथा अपने अधिकार में ले लिया, परंतु गढ़वाली सैनिकों के शौर्य के आगे व टिक नहीं सके लंगूरगढ़ी से आगे नहीं बढ़ पाए।
उसी समय गढ़वाल क्षेत्र को कई भयंकर प्रतिकूल परिस्थितियों से गुरजना पड़ा, जिसमें सन् 1795 भीषण अन्नकाल, गढ़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह के गृहयुद्धों में फंसा होना, सन् 1803 ई. की भाद्रपद की अनंत चतुर्दशी की राज से लगातार सात दिन तक भूकंप और मूसलाधार वर्षा का होना और त्रासदी से गढ़वाल क्षेत्र में भारी जनहानि प्रमुख है। इस स्थिति का लाभ उठाकर गोरखा सेना ने गढ़वाल पर पुनः आक्रमण कर दिया और भितरघात के कारण गोरखे गढ़वाल पर विजय पर प्राप्त करने में सफल रहे।
पंवार वंश के पतन की शुरूआत
14 मई 1804 ई. को गढ़वाल नरेश, प्रद्युम्नशाह देहरादून के खुड़बुड़ा मुहल्ले में गोरखों के साथ लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए। सन् 1804 से सन् 1815 तक गढ़वाल में गोरखों ने भीषण अत्याचार किए, जिन्हें गोरख्याणी के नाम से जाना जाता है। सन् 1815 में अंगेजों ने गोरखों को परास्त कर अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया और कुछ समय के पश्चात गढ़वाल भी उनके अधिकार में आ गया। अंग्रेजों ने सुगोली संधि के अनुसार एक जुलाई सन् 1815 को नागपुर परगने सहित अलकनंदा और गंगापार के क्षेत्र को गढ़वाल के राजा सुर्दशनशाह से युद्ध व्यय के बदले मांग लिया। इस प्रकार यह ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से कहलाने लगा और इसकी राजधानी श्रीनगर ही रही। शेष गढ़वाल को टिहरी गढ़वाल के नाम से राजशाही को दे दिया। प्रद्युम्नशाह की मृत्यु के साथ ही कुमाऊँ एवं आधा गढ़वाल पंवार वंश के हाथ से चला गया।
इस संधि के पश्चात् समस्त कुमाऊँ तथा ब्रिटिश गढ़वाल अंग्रेजी शासन के अधीन आ गया जबकि टिहरी गढ़वाल में सामंती शासन व्यवस्था कायम रही। सन् 1804 से 1815 के गोरखा शासनकाल सहित 1859 तक टिहरी गढ़वाल में सुदर्शनशाह का शासन रहा। उनकी मृत्यु के पश्चात् क्रमशः भवानीशाह (1859-1871), प्रतापशाह (1871-1886), कीर्तिशाह (1886-1813), प्रतापशाह (1913-1946), तथा अंतिम शासक मानवेन्द्रशाह 1946- 1949 तक रहे। तत्पश्चात् सन् 1947 में देश के स्वतंत्र हो जाने पर देशी रियासतों की विलय प्रक्रिया के अंतर्गत 14 जनवरी को टिहरी रियासत का भी भारत गणराज्य में विलय हो गया।
यद्यपि टिहरी रियासत के कई शासक धर्मप्रेमी प्रजापालक रहे, तथापित स्थूल रूप में वहां प्रायः प्रजा के अधिकारों का हनन होता रहा। राजशाही के सामंतवादी शासन और उसके कारिंदो के अत्याचारों से रियासत की जनता त्रस्त हो गई थी। टिहरी राज के अत्याचारों के विरूद्ध आवाज उठाने वाले स्व. श्रीदेव सुमन को टिहरी जेल में 84 दिन के अनशन के पश्चात् 25 जुलाई 1944 को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी थी।
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