कुमाऊँ का इतिहास

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कुमाऊँ का इतिहास: उत्तराखण्ड के इतिहास के अन्तर्गत पिछले ब्लॉग में ’गढ़वाल के इतिहास’ के बारे में बताया गया था। इस ब्लॉग के माध्यम से ’कुमाऊँ का इतिहास ’ के बारे में बताया जा रहा है जिससे सम्बधित प्रतियोगी परीक्षाओं में बहुत से प्रश्न पूछे जाते हैं। इस पोस्ट ’कुमाऊँ का इतिहास ’ को पढ़ने के बाद आपको बहुत से प्रश्नों कोे हल करने में आसानी होगी। (कुमाऊँ का इतिहास )

यद्यपि मध्यकाल से पूर्व संपूर्ण उत्तराखण्ड में मानव जातियों समान रूप से पाई गई हैं, तथापित कुमाऊँ क्षेत्र में नाग जाति के निवासियों की प्रधानता का आभास इस क्षेत्र के बेनीनाग, बेरीनाग, नागेदव, पिंगलनाग, धौलनाग, कालीनाग तथा वासुकीनाग आदि स्थानों से नाम स्पष्ट होता है। कत्यूरी राजवंश तक संपूर्ण उत्तराखण्ड एक सूत्र में ही आबद्ध था, किंतु इस शासन के पतन के बाद गढ़वाल में पंवार वंश तथा कुमाऊँ में चंद वंश का शासन स्थापित हो गया था।

चन्दवंश की स्थापना

चंद वशं की स्थापना को लेकर विद्वानों ने अलग-अलग मत प्रतिपादित किए हैं। कहा जाता है कि इलाहाबाद के निकट के कुंवर सोमसिंह बद्रीनाथ की यात्रा पर आए। उस समय काली कुमाऊँ में सूर्यवंशी राजा ब्रह्मदेव कत्यूरी का शासन था। उनहोंने कुंवर सोमचंद के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनसे अपनी एकमात्र कन्या का विवाह कर दिया तथा दहेज में 15 बीघा जमीन दे दी। कुछ समय पश्चात् राजा के रुप में सोमचंद ने संपूर्ण काली कुमाऊँ पर अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार कुमाऊँ में चंदवंश के प्रथम राजा सोमचंद सन् 700 ई. गद्दी पर आसीन हुए। उन्होंने चंपावत में राजबूंगा के नाम से एक किले का निर्माण भी करवाया।

चन्दवंश का विस्तार

सोमचंद के तत्पश्चात् ने भी राज्य के विस्तार में अथक प्रयास किया। इनका राज्यकाल 19 वर्ष रहा। इसी वंश के राजा पूर्णचंद के पुत्र ने सन् 758 ई. में राज्यभार संभाला। उन्होंने पहली बार कुमाऊँ में एक रेशम का कारखाना लगवाया था, जो ’गोरख्याणी’ राज्यकाल तक चलता रहा। चंदवंश के आठवें राजा वीणाचंद निसन्तान थे। वे अति आलसी थे एवं राजकाज से विमुख रहते थे। इसी समय वीणाचंद की दुर्बलताआ को भांप कर खस राजाओं ने चंद वंश से राज्य छीन लिया और इस प्रकार पुनः 200 वर्षों तक कुमाऊँ पर खस राजाओं का राज्य चलता रहा।

चंद वंश की पुनः स्थापना

खस राजाओं का शासन लोकप्रिय नहीं था। इनके उत्पीड़न से कुमाऊँ की जनता बहुत दुखी थी। इन्हीं दिनों चंद राजा कुंवर वीरचंद खस राजा के भय से नेपाल भागरक चला गया था। जब वह नेपाल से वापस आया कुमाऊँ आया तो उसने खस राजा सैपाल को युद्ध में परास्त कर मार डाला और इस प्रकार कुमाऊँ में पुनः चंदवंश का शासन हो गया। राजा वीरचंद के बाद 28वीं पीढ़ी के राजा अभयचंद तक (अर्थात् सन् 1374 ई. तक) के राजाओं के सम्बन्ध में कोई उल्लेखनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है।

ज्ञानचंद

राजा ज्ञानचंद सन् 1374 ई. में सिंहासन पर बैठे। उनका कार्यकाल सभी चंद राजाओं में सबसे अधिक 47 वर्षों तक रहा। उन्होंने दिल्ली के तत्कालीन बादशाह मुहम्मद तुगलक के पास जाकर उनसे तराई भाबर का क्षेत्र, भागीरथी तक कुमाऊँ में मिलाने की शर्त स्वीकार करवाई और उस स्थिति को पुनर्स्थापित किया जो कत्यूरियों के शासनकाल में रही थी।

कीर्तिचंद

सन् 1488 ई. में कुमाऊँ की गद्दी पर बैठे। कहा जाता है कि वह बहुत वीर और पराक्रमी थे। उन्होंने आसपास के अनेक छोटे-बड़े राज्यों को अपने अधीन कर लिया और इस प्रकार कुमाऊँ के तीन-चौथाई भाग के शासक बन बैठे। कुमाऊँ के इतिहास में कीर्तिचंद को सबसे प्रतापी राजा कहा जाता है। सन् 1560 ई. में राजा बालोचंद गद्द पर बैठे। उन्होंने एक नई राजधानी बनवाई तथा उसका नाम आलमनगर रखा। इसी आलमनगर का नाम अल्मोड़ा है।

रूद्रचंद

चंद राजाओं में रुद्रचंद सर्वश्रेष्ठ विद्वान, शिक्षाप्रेमी और दानी राजा थे। उनके निकट तराई-भाबर का दुर्गम उपजाऊ क्षेत्र था, जिसके लिए राजा को पांच बार युद्ध करना पड़ा अरै इस युद्ध में अंततः उनकी विजय हुई। कहा जाता है कि उनके राज्य का विस्तार लालढांग, बढ़ापुर, नगीना तक था। उन्होेंने 1568 से 1595 तक कुमाऊँ पर शासन किया। उनके नाम पर रूद्रपुर नगर की स्थापना की गई थी।

लक्ष्मीचंद

रूद्रचंद के बड़े पुत्र अंधे थे, अतः छोटे पुत्र कुंवर लक्ष्मीचंद को 1595 में उनका उत्तराधिकारी बनाया गया। लक्ष्मीचंद ने गढ़वाल पर 8 बार आक्रमण किया था। इन्हीं के कार्यकाल में कुमाऊँ में ‘खतडुआ’ त्यौहार मनाए जाने का प्रचलन आज भी चला आ रहा है। उनके उत्तराधिकरी राजा त्रिमलचंद की कोई संतान नहीं थी। अतः पूर्व में भागे हुए चंदो में से बाजगुसांई को सन् 1638 में राजा बाजबहादुर चंद के नाम से गद्दी पर बैठाया गया। बाजपुर नामक कस्बा उन्हीं के नाम पर बसाया हुआ है। उन्होंने 1662 ई. में तिब्बतियों से ताकलखाल के किले को छीन लिया था तथा इनका राज्य तिब्बत में कैलाश मानसरोवर तक फैल गया था। सन् 1680 ई. में इनकी मृत्यु हो गई।

उद्योतचंद व देवीचंद

राजा बाजबहादुरचंद की मृत्यु के पश्चात् गंगोली से उद्योतचंद बुलाए गए तथा उन्हें कुमाऊँ की राजगद्दी पर बैठाया गया। इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके पुत्र राजा ज्ञानचंद सन् 1698 में गद्दी पर बैठे। इन्होंने दस वर्षों तक राज किया। राजा ज्ञानचन्द ने गढ़वाल के कई परगनों को लूटकर उजाड़ दिया था। इनकी मृत्यु के पश्चात् राजा देवीचंद 1720 ई. में गद्दी पर बैठे। वह बहुत ही सनकी किस्म के राजा थे तथा हर समय चापलूसों से घिरे रहते थे। सन् 1729 ई. में उनके अपने ही कारिंदो ने राजा देवीचंद का गला दबा कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया।

अजीतचंद

राजा देवीचंद के बाद राजा अजीतचंद गद्दी पर बैठे। किंतु राज्य के सारे अधिकार पूरणमल गैड़ा और उनके साथियों के हाथों में रहा। उन्होंने कुमाऊँ की जनता पर अत्यधिक अत्याचार किए। उनके कार्यकाल में प्रजा में हा-हाकार मचा हुआ था। जहां भी दृष्टि जाती, सर्वत्र रोने के ही शब्द सुनाई देते थे। इस अन्यायपूर्ण राज्य को कुमाऊँ में ’गैडागर्दी’ के नाम से पुकारा जाता है। राजा अजीतचंद को ’गैंड़ाओं‘ ने धोखे से मार दिया।

कल्याणचंद

इस घटना के बाद कुमाऊँ की राजगद्दी के लिये डोटी में छिपे हुए कल्याणचंद को लाया गया, जो वहां पर बहुत निर्धनता के दिन व्यतीत कर रहे थे। एकाएक राजगद्दी पाकर और धन वैभव प्राप्त कर वे अत्याचारी बन गए और जहां भी वह जाते, चंदवंश के लोगों को तत्काल मरवा देने का आदेश देते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में अनके ब्राह्मणों की आँखे निकलवा दी थी और जमीदारों को मरवाकर स्थानीय नदी में फिंकवा दिया। कहा जाता है कि उनके द्वारा निकलवाई गई आँखों से सात घड़े भर गए थे।

चंदवंश का पतन

  • कल्याणचंद के समय में नवाब मोहम्मद अली खाँ ने 10,000 सैनिकों के साथ कुमाऊँ पर आक्रमण कर दिया। मुगल सेना ने अल्मोड़ा तथा उसके निकट कई मंदिर एवं मूर्तियां तोड़ डाली, किंतु प्रतिकूल जलवायु होने के कारण वे पहाड़ो में ठहन नहीं सके और बहुत-सा धन लूट कर वापस लौट गए। कल्याणचंद के बाद उनके पुत्र दीपचंद के शासनकाल में पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई, जिसमें कुमाऊँ के सैनिकों ने मराठों के विरूद्ध यु़द्ध में भाग लिया था। कुमाऊँ के राजा दीपचंद और गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह के बीच भयंकर युद्ध हुआ था।
  • राजा दीपचंद के अंतिम दिनों में कुमाऊँ की शासन-व्यवस्था में रानी श्रृंगारमंजरी सहित कई अन्य लोग मनमानी करने लग गए थे। सन् 1777 ई. के अंतिम दिनों में सीराकोट के किले में बंदी राजा दीपचंद और उनके दोनों लड़के मार डाले गए आरै दीपचंद को सौतेला भाई मोहनसिंह राजा मोहनचंद के नाम से कुमाऊँ की गद्दी पर बैठ गया, किन्तु भाग्य ने अधिक दिनों तक उनक साथ नहीं दिया। दो वर्ष बाद ही उनको कैद कद लिया गया तथा 1788 में उनकी मृत्यु हो गई। कुमाऊँ की गद्दी पर अंतिम 02 वर्ष, सन् 1790 तक राजा महेन्द्रचंद रहे। इनके साथ ही चंदवंश का सूर्यास्त हो गया और यहां का शासन गोरखाओं के हाथ में चला गया, जो 25 वर्ष तक रहा।

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