उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति आन्दोलन – जम्मू-कश्मीर से लेकर अरूणाचल प्रदेश तक के हिमालय क्षेत्र में केवल मध्य-हिमालय का भू- भाग, उत्तराखण्ड, मात्र ऐसा क्षेत्र है, जिसे पृथक राजनीतिक पहचान नहीं दी गई थी जो अपनी विशिष्ट सभ्यता, संस्कृति एवं भौगोलिक परिस्थितियों के कारण शेष उत्तर प्रदेश से भिन्न पहचान रखता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् कई राज्यों को पुर्नगठन हुआ। (उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति आन्दोलन) कई नए राज्य अस्तित्व में आये, (उत्तराखण्ड राज्य प्राप्ति आन्दोलन)किन्तु जन-जागरण के अभाव में पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग को कभी गंभीरता से नहीं लिया गया।
पृथक राज्य के मांग के कारण
- इस क्षेत्र में केवल 2 प्रतिशत पिछड़ी जातियों के होते हुए 1994 में उत्तर प्रदेश शसन द्वारा उकने लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू किय जाने के निर्णय ने आन्दोलन में घी का काम किया और अपने अस्तित्व को बचाने हेतु पृथक पर्वतीय राज्य आन्दोलन तेज हो गया।
- यहां की योजनाओं मे कार्यरत मैदानी क्षेत्रों के वैज्ञानिक, इंजीनियर, तकनीशियन स्थानीय परिस्थितियों से बिल्कुल अनभिज्ञ होते थे। फलतः जो भी योजनाएं उत्तराखण्ड में शुरू की जाती थी, उनमें अधिकांश विफल हो जाती थी।
- यहां के युवाओं द्वारा देश के विभिनन महानगरों एवं सुदूर अंचलों में छोटी-मोटी नौकरी एवं कड़ी मेहनत के बाद जो रूपया उत्तराखण्ड में ’मनीऑर्डर अर्थव्यवस्था’ के रुप में आता था, जोकि जीवनयापन के लिए बहुत कम होता था।
- पर्यटन एवं धार्मिक दोनों क्षेत्रों में विख्यात, उत्तराखण्ड के लिए ऐसी योजना का प्रावधान नहीं था, जिससे देश एवं विदेशों के लाखों पर्यटकों का आकर्षित कर यहां की अर्थव्यवस्था को आधार दिया जा सके।
- उच्च शिक्ष के क्षेत्र में यद्यपि उत्तराखण्ड में तीन विश्वविद्यालय स्थापित किए गए हैं, परंतु शिक्षा के सर्वोच्च प्रतिभावान छात्रों के लिए उच्च शिक्षा एवं शोध की व्यवस्था न हो सकी।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व के स्तपर पर भी उत्तराखण्ड के बराबर क्षेत्रफल एवं कम आबादी वाले हिमाचल में 68 विधानसभा क्षेत्र हैं, जबकि उत्तराखण्ड में मात्र 19 क्षेत्र थे।
- राज्य पुर्नगठन आयोग ने जिन विशेषताओं के आधार पर नए राज्यों के गठन की सिफारिश की थी, पृथक राज्य के लिए वही विशेषतांए उत्तराखण्ड भी रखता था।
- अपनी अस्मिता और जीवन को बचाने के लिए चिपको जैसे पर्यावरण आन्दोलन को जन्म देने के पीछे स्थानीय लोगों की सोच थी कि इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन नहीं किया जान चाहिए।
- आर्थिक पिछड़ेपन से पैदा हुए पलायन के कारण उत्तराखण्ड के गांव के गांव पुरुषों से खाली हो गए। पुरूषों के अभाव में गांवो की आर्थिक व्यवस्था ठप हो गई थी।
- संपूर्ण उत्तराखण्ड के आर्थिक विकास के साथ ही यहां की संस्कृति, भाषा, प्रागैतिहासिक धरोहर और ऐश्वर्य को बचाया जाना आवश्यक था।
प्रशासनिक कारण
उत्तराखण्ड का उत्तर प्रदेश के मैदानी भागों से पृथक इकाई का अस्तित्व, ब्रिटिश शासकों ने सन् 1815 में गोरखा शासन से गढ़वाल-कुमाऊँ को मुक्त कराकर संगौली संधि के बाद अपने निम्न ऐतिहासिक निर्णयों के आधार पर प्रमाणित कर दिया था, जो आज भी प्रासंगिक हैं-
प्रशासनिक व्यवस्था
इंडियन काउंसलिंग एक्ट की धारा-40 के अंतर्गत दोनों मंडलों में छोटी प्रशासनिक इकाई का सृजन किया गया, जिसे पट्टी पटवारी क्षेत्र कहा जाता है। पटवारी का आज भी यहां राजस्व व पुलिस दोनों के अधिकार प्राप्त है। यह व्यवस्था सन् 1874 से वर्तमान में भी लागू है।
वनों का अधिकार
पहाड़ी क्षेत्रों की संरचना और संस्कृति की विशिष्टताओं को देखते हुए स्थानीय जनता को वनों के संपूर्ण अधिकार दिए थे।
भूमि का माप
पहाड़ी क्षेत्रों में बीघा, एकड़ के स्थान पर भूमि की माप का पैमाना ’मुठ्ठी’ व नाली बनाया गया, जो आज भी प्रचलित है। अंगेजों द्वारा बनाया गया भूमि-बंदोबस्त यहां आज भी लागू है।
न्यायिक व्यवस्था
न्याय की दृष्टि से पहाड़ों को मैदानी भागों को मैदानों से अलग मानते हुए इलाहाबाद के स्थान पर दीवानी मुकदमों की सर्वोच्च अदालत नैनीताल में कुमाऊँ कमिश्नर की कोर्ट में बनाया गया था।
कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारण
- हिमालय के वैज्ञानिक प्रबंधन की आवश्यकता ।
- प्रशासनिक असंतुलन के कारण आर्थिक पिछड़ापन दूर कर अपेक्षित विकास की आवश्यकता।
- राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से सामाजिक सुदृढ़ता की आवश्यकता।
- हिमालय आर्थिकी के अनुकूल नियोजन-नीति सुनिश्चित करने वाली विशेषज्ञ व्यवस्था की आवश्यकता।
- राजनीतिक संतुलन तथा स्वायत्ता की दृष्टि से छोटी राजनीतिक संरचनाओं की आवश्यकता।
- वृहत्तर जनसंख्या की सामाजिक विशिष्टता तथा उसकी सामाजिक आकांक्षओं की पूर्ति।
पृथक राज्य-निर्माण का इतिहास
- 5 व 6 मई 1938 को श्रीनगर (गढ़वाल) में आयोजित कांग्रेस के विशेष राजनीतिक सम्मेलन को संबोधित करते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरु ने कहा था कि- ’इस पर्वतीय अंचल को अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के अवसर और अधिकार मिलने चाहिए।
- सन् 1952 में कम्युनिसट पार्टी के नेता श्री पी.सी. जोशी ने पर्वतीय क्षेत्र को सहायता दिए जाने की मांग उठाई।
- 1955 में फजल अली आयोग कमीशन ने उत्तर प्रदेश के पुर्नगठन की बात इस क्षेत्र की अलग राज्य बनाने के दृष्टिकोण से की थी। सन् 1956 में राज्य पुर्नगठन आयोग ने प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र के लिए अलग राज्य के विषय में विचार किया गया।
- सन् 1957 में टिहरी के पूर्व नरेश मानवेन्द्रशाह ने पृथक राज्य के लिए आंदोलन छेड़ा था, जिसे 1962 में चीनी आक्रमण के कारण राष्ट्रीय हित में वापस ले लिया।
- 1957 में योजना आयोग के उपाध्यक्ष टी.टी कृष्णाचारी ने पहाड़ी क्षेत्रों की समस्याओं पर विशेष ध्यान देने का सुझाव दिया था।
- 19 नवंबर, 1957 को पंजाब, हिमाचल प्रदेश व उ.प्र. के संसद सदस्यों ने योजना आयोग के अंतर्गत एक पहाड़ी योजना-समिति का सुझाव, पहाड़ी क्षेत्रों के विकास को दृष्टिगत रखते हुए दिया था।
- 1968 में ऋषि बल्लभ सुन्दरियाल के नेतृत्व में दिल्ली में पृथक राज्य के लिए प्रदर्शन हुआ।
- 12 मई 1970 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उ.प्र. के पहाड़ी जिलों के पिछड़ेपन और गरीबी को देखते हुए इन क्षेत्रों की पृथक प्रशासनिक इकाई का सुझाव दिया था।
- 1979 में, मसूरी में उत्तराखण्ड क्रांति दल का गठन उत्तराखंड राज्य प्राप्ति के लक्ष्य के साथ हुआ।
- 1987 में भारतीय जनता पार्टी ने इस पहाड़ी क्षेत्र के लिए लालकृष्ण आडवाणी की अध्यक्षता में अल्मोड़ा में आयोजित बैठक में अलग राज्य की बात को स्वीकार किया था तथा तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकारने 12 अगस्ता 1991 को विधानसभा में पृथक राज्य का प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार की स्वीकृति के लिए भेज दिया था।
- वर्ष 1992 में गठित योजना आयोग की एक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि अन्य हिमालयी राज्यों की भांति इस क्षेत्र को भी अपनी समस्याओं के समाधान की दिशा में प्राथमिकता देनी चाहिए।
- उत्तराखण्ड आंदोलन प्रारम्भ होते ही उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सपा-बसपा सरकार ने कौशिक समिति की सिफारिशों पर अलग उत्तराखण्ड राज्य का प्रस्ताव 24 अगस्त 1994 को विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित कर उसे केंद्र सरकार को भेज दिया गया था।
- राज्यों के निर्माण/पुर्नगठन के इतिहास में यह पहला अवसर है, जब किसी प्रदेश की दो विधानसभाओं/सरकारों ने अपने-अपने कार्यकाल में अपने ही प्रदेश के (पर्वतीय) हिस्से को, उस क्षेत्र के जनभावनाओं को देखते हुए अलग राज्य की स्वीकृति का प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार से उत्तराखण्ड राज्य बनाने की मांग की थी।
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