उत्तराखण्ड की कृषि एवं फसलें: उत्तराखण्ड में कृषि का स्वरूप, कृषि एवं फसलें भूमि की स्थिति, उत्पादन क्षमता, जोतों के आकार तथा फसल चक्र, सिंचाई के साधनों की सुलभता, भूमि का ढाल, भूमि कटाव, भू-स्खलन, यांत्रिक साधनों के उपयोग की अनुकूलता आदि अनेकानेक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों में पर्याप्त भिन्नता लिए है ( उत्तराखण्ड की कृषि एवं फसलें)। मैदानी क्षेत्रों में जहां कृषि एवं फसलें जीवन का आधार है, वहीं पर्वतीय क्षेत्रों की खेती मात्र निर्वाह कृषि के रुप में है। ( उत्तराखण्ड की कृषि एवं फसलें )
उत्तराखण्ड में कृषि
प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों का कृषक वर्षभर एक ही स्थान पर कृषि कार्य करते हुए कई प्रकार की फसलें उगाता है, वहीं पर्वतीय सीमांत क्षेत्रों के कतिपय जनजातीय कृषक, ऋतुकालीन प्रवास के चक्र में विचरण करते हुए समशीतोष्ण निचले ढालों पर गेहँू, धान आदि फसलें उगाते हैं।
उससे ऊपर शिखर क्षेत्रों में जौ, फाफड़, चौलोई आदि की खेती करते हैं। उच्चस्थ शिखर क्षेत्रों मंे स्थित विस्तृत चारागाहों (बुग्यालों) में पशुचारण करते हैं तथा हिमाच्छादित हिमानी (ग्लेशियर) क्षेत्रों में पर्यटकों के मार्गदर्शक की भी भूमिका निभाते हैं।
राज्य में कुल 56.70 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में से मात्र फसली 7.66 लाख हेक्टेयर है, जिसका 56.8 प्रतिशत पर्वतीय तथा शेष 43.2 प्रतिशत मैदानी क्षेत्रों में है।
प्रदेश की कुल कृषि भूमि में 15,238 हे. में आलू की खेती की जाती है, जबकि 1,14,059 हे. में गन्ना प्रमुख नकदी फसल है। उधमसिंहनगर, नैनीताल तथा देहरादून के मैदानी भाग तथा हरिद्वार जनपद प्रमुख गन्ना उत्पादक क्षेत्र है।
भूमि के उपजाऊपन के अनुसार वर्गीकरण
कटील, उल्खेड़ी या इजर
यह सबसे निम्न श्रेणी की कृषिभूमि है, जिसको राजस्व अभिलेखों में उखड़ (दोयम) भूमि के नाम से दर्ज किया गया है। पर्वतीय क्षेत्रों में इस प्रकार की भूमि को कटील, खिल, उल्खेड़ी आदि नामों से पुकार जाता है। ऐसी भूमि सूखी, अनुउपजाऊ तथा अधिक ढालदार (30 से 50 डिग्री तक या अधिक) होती है। ऐसी कृषि भूमि में गहत (कुलथ), भट्ट (सोयाबीन की किस्म), मंडुवा (कोदा), झंगोरा, कौणी, चुआ, ओगल, फाफर आदि की फसलें बोईं जाती है। इस भूमि पर बारह वर्ष में दो या तीन फसलें पैदा की जाती है।
उपराऊँ भूमि
इस भूमि को ऊखड़ कहा जाता है। इसकी मिट्टी कटील से अच्छी तथ उपजाऊ, लाल अथवा भूरे रंग की होती है। इसमें अच्छी फसलें जैसे धान, उड़द, मंडुवा, सोयाबीन, चुवा, मूंग, मसूर, आलू आदि फसलें उत्पन्न की जाती है। यह भूमि वर्षभर वर्षा पर निर्भर रहती है किन्तु उपज की दृष्टि से अच्छी होती है। इसमें दो वर्ष में तीन फसलें प्राप्त की जाती है तथा इस अवधि में लगभग तीन माह (नवंबर) से जनवरी) तक खाली छोड़ दी जाती है। यह समय मंडुवा की फसल काटने के बाद तथा धान की फसल बोने की पूर्व होता है।
तलाऊँ भूमि
तलाऊँ का अर्थ है सिंचित। सिचिंत भूमि सर्वथा छोटी नदी (गधेरों) की घाटियों तथा गधेरों के पास होती है। गंगा, यमुना आदि नदियों की घाटियों में सिचिंत भूमि देखी जा सकती है, किंतु यह भूमि प्रत्यक्ष रुप से इन नदियों का जलग्रहण करने से वंचित रहती हैं, क्योंकि ये नदियां गहरी घाटियों में बहती है और इनसे, ऊँचाई पर स्थित भूमि को सिचिंत करना संभव नहीं है। अतः अधिकतर भूमि वर्षभर जलप्रवाह वाली गधेरों से सिचिंत होती है। इस भूमि पर भी हल-बैल से ही जुताई की जाती है।
इस प्रकार की भूमि को तीन उपविभागों में बांटा जाता है
- सेराः अति उत्तम जलोढ़ क्ले मिट्टी-जल की प्रचुरता
- पणचरः मध्यम मिट्टी-आंशिक जल पूर्ति
- सिमारः निंरतर जल प्लावित-वर्ष में केवल एक अति उत्तम धान की फसल
तराई व भाबर भूमि़
पर्वतीय क्षेत्र के दक्षिण में जहां पहाड़िया समाप्त हो जाती है एवं मैदान प्रारम्भ होते है, उस भू भाग में भाबर की तंग पट्टी मिलती है। इस क्षेत्र में धरातलीय जल भूमिगत होकर बहता है, जो तराई क्षेत्र में प्रकट हो जाता है। वर्षा की अधिकता के कारण इन क्षेत्रों में भूमि दलदली है, जो उपज की दृष्टि से उत्तम है। जसपुर, काशीपुर, रूद्रपुर, कोटद्वार आदि क्षेत्र धान की उत्कृष्ट कृषि के लिए प्रसिद्ध हैं। इस भूमि में गन्ने की खेती व्यावसायिक रुप से उल्लेखनीय है। प्रदेश की सर्वोत्तम कृषि भूमि, तराई-भाबर क्षेत्र में ही मिलती है।
फसलें
- प्रदेश में फसलें की दृष्टि से दो मौसम होते हैं। प्रथम रबी का मौसम है, जिसके अंतर्गत फसल सिंतबर-अक्टूबर-नवंबर में बोकर अप्रैल-मई-जून में काटी जाती है। रबी की फसल मुख्यतः गेहूँ, जौ, दालें, तिलहन, आले आदि फसलें बोई जाती हैं।
- द्वितीय खरीफ का मौसम है, जिसमें पर्वतीय क्षेत्र की सर्वाधिक फसलें होती है, जैसे धान, झंगोरा, मंडुवा, मक्का, गन्ना, चुवा, आलू, बेल वाली दालें आदि।
- जायद की फसल तराई-भाबर तथा दून घाटी के अतिरिक्त सिंचित क्षेत्रों में उत्पादित की जाती है। खरीफ की फसल अथवा बरसाती फसल में साधरणतया मिश्रित कृषि की जाती है। इसमें मुख्य फसलों के साथ मकई, तिलहन, सब्जियां-जैसी मूली, लौकी, छेमी, करेला आदि होती है। इस प्रकार साधारणतया दो वर्षों में तीन फसलें ली जाती है।
- हरिद्वार, तराई-भाबर तथा दून घाटी में धान, गेहूँ, जौ, चना, तिलहन तथा गन्ना उत्पन्न किया जाता है। अन्य सिंचित क्षेत्रों में प्याज व आलू कैश क्राप के रुप में उत्पादित किया जाता है।
फसल चक्र
इसका अभिप्राय होता है कि एक फसल के बाद दूसरी फसल और पुनः उसी फसल अथवा एक अन्य फसल के बाद उसी को बोया जाता है।
- धान – गेहूँ – मंडुआ – परती छोड़ना (असिंचित)
- आलू – गेहूँ- मंडुआ – असिंचित (6000 मी. से ऊपर)
- धान – आलू – धान – गेहूँ
- धान – गेहूँ – धान – गेहूँ
- प्रदेश में सिंचाई की दृष्टि में उपयुक्त भूमि ’तलाऊँ’ या सेरा होती है। यह सबसे उत्तम प्रकार की भूमि होती है।
- सेरा कृषि के अंतर्गत यद्यपि धान, गेहूँ, मंडुवा, झंगोरा, आलू, प्याज, तंबाकू, मिर्च, अदरक, हल्दी आदि उगाए जाते हैं तथापि धान की फसल सर्वप्रमुख स्थान रखती है।
Pingback: उत्तराखण्ड की सिंचाई व्यवस्था - Uttarakhand GK