उत्तराखण्ड की सिंचाई व्यवस्था – उत्तराखण्ड की सिंचाई व्यवस्था तथा कृषि एवं फसलों से की परीक्षाओं में प्रश्न पूछे जाते हैं। इस पोस्ट “उत्तराखण्ड की सिंचाई व्यवस्था “के माध्यम से उन सभी प्रश्नों की तैयारी करवाने की कोशिश की गई है। (उत्तराखण्ड की सिंचाई व्यवस्था )
गूलें, पोखर तथा नहरें
- कृषि के विकास के लिए सिंचाई का महत्वपूर्ण स्थान है। कम से कम भूमि पर अधिक से अधिक अन्न पैदा करने के लिए जहाँ उत्तम खाद, उन्नत बीच एवं उपकरणों की आवश्यकता होती है, वहीं सिंचाई की सुविधाओं का होना भी नितांत आवश्यक है। वास्तविकता यह है कि बिना सिंचाई के उत्तम से उत्तम बीज, अधिक से अधिक खाद व उन्नत उपकरणों से बोया खेत भी बंजर रह जाता है।
- राज्य के मैदानी भागों में जहाँ एक ओर बड़ी नहरों एवं नलकूपों द्वारा सिंचाई की जाती है, वहीं पर्वतीय भागों में कहीं भी बड़ी नहरों द्वारा सिंचाई का प्रावधान नहीं है। यहाँ कुएं भी नहीं खोदे जा सकते। सिंचाई के एकमात्र साधन नदी, गधेरों से निकाली गई गलें और पानी के पोखर या खाल है, जिनमें छोटी नहरों (गूल) द्वारा जल एकत्रित करके सिंचाई की जाती है।
गूलें
- क्षेत्रीय विभिन्नताओं केकारण भिन्न – भिन्न स्थानें में गूलों के निर्माण में न्यूनाधिक परिश्रम एवं कुशलता आवश्यक है। पर्वतीय क्षेत्रों में गुरूत्व सिद्धांत पर आधारित सिंचाई ही संभव है। इसीलिए बड़ी नदियों की अपेक्षा गधेरों या रौलियों से सिंचाई करना अधिक व्यावहारिक है। गूलों की संख्या, जलकी प्रकृति तथा मात्रा और सिंचित की जाने वाली भूमि के क्षेत्रफल पर निर्भर करती है।
- पर्वतीय क्षेत्रों में नदी-गधेरों में बाढ़तल तथा निम्नतम जलतल में काफी अंतर होता है। अतः ग्रीष्मऋतु में बहुधा गूले सूख जाती हैं। प्रारंभिक भाग में प्रत्येक गूल, बाढ़ तल से नीचे बनाई जाती हे। किंतु वषाऋतु में पानी के तीव्र बहाव तथा पत्थरों के लुढ़क कर आने के कारण गूलें प्रायः क्षतिग्रस्त हो जाती है। पर्वतीय भागों में लोकनिमार्ण विभाग, अल्प (माइनर) सिंचाई विभाग एवं सामूहिक एवं व्यक्तिगत प्रयासों द्वारा सिंचाई हेतु व्यावहारिक योजनाएं बनाकर उनको क्रिन्यावन किया जाता है।
पोखर
प्रदेश के कतिपय पर्वतीय क्षेत्रों में पोखर या जलाशय जिन्हें स्थानीय भाषा मंे खाल कहते हैं, में वर्षाजल एकत्रित करने की भी परम्परा है। गूलों में जल की मात्रा कम होने पर वह खेतां तक नहीं पहुँच जाता है, अतः ढलानों से जल-संग्रहण हेतु बनाये गये जलाशयों से वर्षाजल एकत्र किया जाता है।
नहरें
प्रदेश में सततवाहनी नदियों की अधिकता के कारण नहरों का विकास करना सुवधिाजनक है। लेकिन इस प्रणाली के अधिक खर्चीला तथा भू-संरचना के विषम होने के कारण अभी तक नहरों का उतना विकास नहीं हो पाय है, जितना कि होना चाहिए। राज्य गठन के समय याहं केवल 6,064 किमी. नहरें ही थी। गठन के बाद सरकारों के नहरों के विाकस पर विशेष जोर देना शुरू किया, जिसमें अब तक (2012-13) में नहरों के लम्बाई 11702 किमी. तक है।
प्रमुख नहरें
ऊपरी गंगा नहर (गंगनहर)
यह राज्य की सबसे पुरानी नहर है, जिसका निर्माण 1842 से 1854 के बीच किया गया था। इस नहर को हरिद्वार के समीप गंगा के दाहिने छोर से निकाला गया है, जोकि कानपुर तक आयी है। 1983 में इसका आधुनिकीकरण कार्य शुरू हुआ, जिसके अन्तर्गत उत्तर प्रदेश के क्षेत्र के अलावा हरिद्वार में 6 से 39 किमी. के बीच समानांतर नहर तथा इसके बीच चार बड़े ड्रेनेजों रानीपुर साइफन, पथरी सुपर पैसेज, सोलानी जल सेतु और रतमऊ जल सेतु के निर्माण का कार्य पूर्ण किया गया है। इस नहर से उत्तर प्रदेश के बहुत बड़े भू-भाग के साथ ही हरिद्वार के दक्षिणी-पश्चिमी क्षत्रों की सिंचाई की जाती है।
पूर्वी गंगा नहर परियोजना
इस परियोजना के अंतर्गत हरिद्वार में नवनिर्मित भीमगोड़ा शीर्ष के बाईं ओर 48.55 किमी. लम्बी व 137.4 क्यूसेक शीर्ष क्षमता की मुख्य नहर निकलती है। मुख्य नहर से पांच शाखाएं चंदोेक, नगीना, नजीबाबाद, नहटोर, अलावलपुर निकाली गई हैं। इन शाखाओं की लम्बाई 155.47 किमी. तथा वितरण प्रणालियों की कुल लम्बाई 1,489 किमी. है। इन शाखाओं से वर्षा ऋतु में गंगा उपलब्ध अतिरिक्त जल का उपयोग कर हरिद्वार तथा उत्तर प्रदेश के बिजनौर व मुरादाबाद जिलों में सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराई गई हैं।
शारदा नहर प्रणाली
यह नहर चम्पावत के बनबासा (उत्तराखण्ड-नेपाल सीमा) से निकाली गई है। इस नहर प्रणाली का निर्माण 1928 में शारदा (काली) नदी पर हुआ था। इस नहर प्रणाली में उत्तर प्रदेश के साथ-साथ उत्तराखण्ड के चम्पावत, ऊधमसिंहनगर आदि जिलों को सिंचाई सुविधा उपलब्ध होती है।
जमरानी बाँध परियोजना
इस परियोजना से उत्तराखण्ड के ऊधमसिंहनगर व नैनीताल जिले को सिंचाई सुविधा उपलब्ध होती है।
नानक सागर बाँध नहर परियोजना
यह बाँध और जलाशय नैनीताल से निकलने वाली नंधौर नदी पर नैनीताल और ऊधमसिंहनगर की सीमा पर है। इससे निकलने वाली नहरों से नैनीताल, ऊधमसिंहनगर आदि जिलों में सिंचाई की जाती है।
रामगंगा नहरें
पौड़ी गढ़वाल के कालागढ़ के पास बाँध बनाकर निकाली गई लगभग 3200 किमी. लंबी नहरों की श्रृंखला से उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के लगभग 17.05 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई की जाती है।
भीमताल
यह कुमाऊँ क्षेत्र की सबसे बड़ी झील है। इस झील से कई छोटी-छोटी नहरें निकाली गई हैं, जिनसे नैनीताल जिले के कुछ क्षेत्रों की सिंचाई की जाती है।
टिहरी बाँध परियोजना
इस बहुउद्देशीय परियोजना से राज्य के टिहरी, पौड़ी, देहरादून तथा हरिद्वार जिलों में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध किया जाना प्रस्तावित है।
सिंचाई सुविधाओं के भावी प्रयास
- राज्य के सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग द्वारा प्रकाशित विकास को संकल्पित ’पत्रिका’ के अनुसार प्रदेश में कुल 56.65 लाख हेक्टेयर प्रतिवेदित क्षेत्र में से मात्र 7.67 लाख हेक्टेयर में ही कृषि की जाती है तथा मात्र 3.43 लाख हेक्टेयर (46.65 प्रतिशत) में ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। सिंचाई हेतु वर्तमान में 1733 नहरें, 615 नलकूप एवं 74 लघु बाँध नहरें चालू स्थिति में हैं। गत वित्तीय वर्ष में 5 राष्ट्रीय नलकूपों का विद्युतीकरण एवं 540 हेक्टेयर सिंचन क्षमता तथा पूर्व निर्मित 6 लिफ्ट सिंचाई योजनाओं का जीर्णोद्धार किया गया।
- राज्य में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार हेतु 145 नलकूपों का निर्माण, 155.31 नहरों का निर्माण, 288 नहरों का पुनरोद्धार, 5 लिफ्ट सिंचाई योजनाएं, त्वरित सिंचाई लाभ हेतु गूलों की लाइनिंग, जलाशय निर्माण, सिंचाई सहभागिता प्रबन्धन, स्पेशल कम्पोनेट, प्लॉन, ट्राइबल सब प्लॉन आदि योजनाएं क्रियान्वित हैं।
प्रदेश में सिंचाई क्षमता
उत्तराखण्ड में सिंचाई के प्रमुख संसाधनों में नहरें, नलकूप तथा पम्प नहरें हैं। वर्ष 2019 के अंत तक राज्य में 2973 छोटी पर्वतीय और भाबर नहरें थी। इसके अतिरिक्त 1683 नलकूप और 234 लघु डाल नहरें निर्मित हैं और इनका कुल कमाण्ड एरिया 3918 लाख हेक्टेयर है। राज्य में खरीफ तथा रबी की सिंचन क्षमता क्रमशः 2.845 लाख हेक्टेयर व 2.092 लाख हेक्टेयर है। इस तरा कुल 4.577 लाख हेक्टेयर के सापेक्ष कुल 3.146 लाख हेक्टेयर सिंचन सुविधा उपलब्ध है।
कृषि-विकास के प्रयास
- राज्य में विज्ञान एवं प्रौद्योगिक परिषद के सक्रिय सहयोग से वैज्ञानिक ढंग से कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए एवं कृषि सम्बन्धी नवीनतम खोाजों की दिशा में गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर तथा उसका टिहरी गढ़वाल स्थित रानीचौरी परिसर निरंतर प्रयत्नशील है।
- प्रदेश के 95 विकास खण्डों में से 71 विकासखण्ड मात्र वर्षाजल पर आश्रित हैं, जिन्हें जलागम प्रबन्धन पद्धति के आधार पर भूजल की उपलब्धता सुनिश्चित की जा रही है। कृषि उत्पादन में वृद्धि हेतु जैव उर्वरकों, जैविक खादों, हरी खाद, सभी कृषकों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड, मैदानी क्षेत्रों में उत्पादकता वृद्धि हेतु लेवलर मशीन का उपयोग, कृषि यन्त्रों पर अनुदान, फसल बीमा, उन्नत बीच निर्धारण, 300 कृषि निवेश आपूर्ति केन्द्रों की स्थापना, सन्तुलित उर्वरक, प्रोत्साहल, पौध सुरक्षा, जैविक खेती कार्यक्रम, वर्षा आधारित कृषि क्षेत्र का विकास, जल-संरक्षण एवं संभरण, अरहर उत्पादन में इंक्रीसेट माध्यम का उपयोग, बंजर भूमि विकास तथा सुखोन्मुख क्षेत्रीय विकास कार्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं।
- सिंचाई हेतु जलागम प्रबंध योजनाओं को प्राथमिकता से संचालित किया जा रहा है। जलागम प्रबंध निदेशालय द्वारा आई.डब्ल्यू.डी.पी (हिल्स 2) शिवालिका का क्रियान्वयन कराया जा रहा है। कृषि विधिकरण परियोजना में लाभ पहुँचाने हेतु कृषि, उद्यान, पशुपालन, रेशम घटक तथा ग्रामीण संपर्क मार्ग के अंतर्गत किया गया है। उत्तराखण्ड कृषि उत्पादन मंडी परिषद की 18 मंडी समितियों को इंटरनेट से जोड़ दिया गया है और प्रत्येक मंडी समिति के कंप्यूटर कक्ष को किसान सूचना केंद्र के रुप में विकसित किया गया है। राज्य के फल सब्जी संग्रह केंद्र व रोपवे निर्माण की योजना के अंतर्गत नौ स्थानों पर फल सब्जी केंद्रो का निर्माण किया गया है।