उत्तराखण्ड की जनजातियां– UKSSSC/UKPCS की परीक्षाओं की तैयारी हेतु उत्तराखण्ड सामान्य ज्ञान के अन्तर्गत उत्तराखण्ड की जनजातियां की पोस्ट के माध्यम से आपको उपलब्ध करवाई जा रही है। उत्तराखण्ड उत्तराखण्ड की जनजातियां भोटिया, मारछा, बोक्सा, जौनसारी, जाड़, थारू तथा राजी जातियों को विनिर्दिष्ट किया गया है। (उत्तराखण्ड की जनजातियां)
उत्तराखण्ड की जनजातियां
उत्तराखण्ड की जनजातियां
जनजातियां
- भारत के संविधान के भाग 16 में, कुछ वर्गों के सम्बन्ध में विशेष उपबंध किए जाने का प्रावधान है। इन्हीं प्रावधानों के अधीन विशिष्ट समुदायों को अनुसूचित किया जाता है।
- इसके अनुच्छेद 341 तथा 342 में क्रमशः अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति विनिर्दिष्ट किए जाने का प्रावधान है। अनुच्छेद 342 (अनुसूचित जाति) का प्रावधान इस प्रकार हैः राष्ट्रपति इस सम्बन्ध में और जहां व राज्य है, वहां उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात् लोक अधिसूचना द्वारा उन जनजातियों या जनजाति समुदायों के भागों या उनमें से यूथों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें संविधानों के प्रयोजनों के लिए उस राज्य के सम्बन्ध में अनुसूचित जनजाति समझा जायेगा।
- उत्तराखण्ड में इस प्रावधान के अनुसार भोटिया, मारछा, बोक्सा, जौनसारी, जाड़, थारू तथा राजी जातियों को विनिर्दिष्ट किया गया है।
भोटिया
- ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अलकनन्दा उपत्यका में प्राचीनकाल में पर्वू दिशा से लघु हिमालय की पशुचारक भिल्ल-किरात जाति ने हिमालय प्रदेश में प्रवेश किया। कालांतर में तिब्बत के तिब्बती एवं ’खश’ दास-दासियों का मिश्रण भी इसमें होता गया। अनुमानतः दसवीं शताब्दी से इस किरात जाति के लिए ’भोटा’, भोटांत’ शब्दों का प्रयोग होता गया।
- प्राचीनकाल में तिब्बत से स्फटिक, पुखराज, स्वर्णमक्षिका, लैपिस लजूली एवं अन्य बहुमूल्य पाषाण रत्नों का आयात इन्हीं भोटांतिका द्वारा नीति माणा तथ्ता जोहार , दारमा, व्यास आदि के दर्रों द्वारा किया जाता था।
- वस्तु विनिमय प्रणाली के अंतर्गत वे तिब्बती व्यापारियों को अनाज, सूती वस्त्र, श्वेत अभ्रक, केसर, त्रिफला, कस्तूरी, शिलाजीत, भोजपत्र, ग्रंथपर्णिका, पशुओं की खालें तथा भांग से निर्मित वस्तुएं निर्यात करते थे।
- भोटिया जनजाति की निम्नवत उपजातियां भी पाई जाती हैं- मारछा, तोल्छा, जोहारी, शौका, दरमिया, चौंदासी, व्यासी, जाड़, जेठरा, तथा छापड़ा। भागरथी घाटी में रहने वाले जनजाति ’जाड़’भी मूलरूप से भोटिया है।
जीवन शैली
- भोटांतिक ऐसे प्रवजनकारी लोग हैं, जो ग्रीष्म में ऊँचे स्थानों में स्थित अपने मूल स्थानों में रहते हैं तथा शीतऋतु में अपने पशुओं सहित निचली घाटियों में स्थित गांवों में लौट जाते हैं। इस क्षेत्र में समृद्ध चरगाहों के कारण यहां के लोगों ने पशुपालन और ऊन उद्योग को अपनी आजीविका का प्रमुख साधन बनाया है।
- विष्णु गंगा घाटी में भोटांतिक के तीन गांव माणा (अंतिम भारतीय गांव) वनाकुली एवं औध हैं। ’मारछा’ लोगों के लिए तीन गांव, ’जोहारी’ भोटांतिकों के एसे अधिक गांव तथा ’तोलछा’ भोटांतिकों के 20 से अधिक गांव हैं। इस घाटी में ’मलारी’ मारछों का, एवं ’नीति’ भोटांतिकों को अंतिम गांव हैं। भागीरथी घाटी में ’नेलंग’ तथा ’जाड़ंग’ गांवो में जाड़ भोटांतिक गांव रहते हैं।
वेशभूषा
- भोटिया जनजाति में वेशभूषा के अन्तर्गत पुरुषोें के घुटनों तक पहुंचने वाला ऊनी अंगरखा ’रंगा’ कहलाता है। चूड़ीदार ऊनी पायजामे को ’गैजू’ या ’खगचसी’ कहते हैं। पुरूषों के ऊनी जूते ’बांखे’ कहलाते हैं। स्त्रियों के परिधान में ’च्यूमाला’, ’च्यूंकला’, ’च्यूब्ती’, ब्यूज्य तथा ’कम्बयै’ मुख्य हैं। ’च्यूं’ आधी बाहांे का परिधान है। ’च्यूमाला’ के साथ पहना जाने वाला टोपीुनमा वस्त्र ’च्यूंकला है। स्त्रियां सफेद लट्ठे के लम्बे टुकड़े ’ज्यूज्य’ से कमर बांधती हैं।
- भोटांतिक बोली में आभूषणों को ’साली-पुली’ कहते हैं। स्त्रियों के आभूषणों में ’बलडंग’ (चांदी के सिक्कों को पिरोकर बनाई गई माला) खोंगली (गले का आभूषण), ’मंसाली’ (लाल मनका की माला) गले के मुख्य आभूषण है। सिर पर धारण किए जाने वाले आभूषणों में ’बीरावली’, छांकरी वाली’, ’पतेली बाली’ प्रमुख हैं। वे ’लक्क्षेप’ (अंगूठी) भी पहनती हैं।
व्यापार
- तिब्बत के हुणिया व्यापारियों से भोटांतिकों का व्यापार आर्थिक जीवन का एक महत्वपूर्ण आधार रहा है। इस व्यापार से सम्बधित अनेक प्रथाएं प्रचलित थीं। प्रत्येक भोटांतिक व्यापारी का तिब्बत में एक मध्यस्थ होता था। जिसे ’मितुर’ कहा जाता था।
- इस मित्रता को स्थापित करने के लिए एक रस्म ’सुजली मुजली’ आवश्यक थी। जिसमें एक ही प्न्याले से पहले तिब्बती मध्यस्थ ’छंग’ मदिरा की घंूट लेता था और फिर भोटांतिक व्यापारी भी उसी प्लयाले से जूठी शराब पीकर तिब्बती मध्यस्थ को एक सफेद रुमाल भेंट देता था।
- इसके पश्चात् व्यापार का शर्तनामा लिखा जाता था। वह अभिलेख ’गमग्या’ कहलाता था। इसके अनुसार एक पत्थर के दो टुकड़े करके एक भोटांतिक व्यापारी के पास तथा दूसरा तिब्बती मितुर के पास व्यापार समझौते के प्रतीक स्वरूप रहता था। सन् 1962 में तिब्बत पर चीन का आधिपत्य हो जाने पर यह व्यापार पूर्णतया समाप्त हो गया।
बुक्सा
- इस जनजाति के लोग जनपद लोग बाजपुर, गदरपुर, काशीपुर, रामनगर, जनपद गढ़वाल के कोटद्वार भाबर क्षेत्र तथा जनपद देहरादून के डोईवाला व सहसपुर विकासखण्डों के लगभग 173 गांवो में रहते हैं। इनकी शारीरिक बनावट एवं विशेषताएं मिश्रित प्रजातीय उत्पत्ति को इंगित करती हैं।
- यह अपने को पंवार वंशीय राजपूत मानते हैं। अग्रेंज अधिकारी इलियट ने लिखा है कि बुक्सा समुदाय के लोग शारदा नदी के किनारे बनबसा में आकर बसे। एक युद्ध में कुमाऊँ के राजा की सहायता करने पर इनके पूर्वज उदयजीत को जागीर प्राप्त हुई। बाद में ये बनबसा में आकर बस जिस स्थान में रहने लगे, वह बुकसाड़ कहलाया। ’आइने अकबरी’ में बुकसाड़ का उल्लेख मिलने से ज्ञात होता है कि बुक्सा इस क्षेत्र में 16वीं शताब्दी से पहले आ गये थे।
- बुक्सा अपनी जनजाति के बाहर या अन्य दूसरी जनजाति से विवाह नहीं करते हैं।
- इस जनजाति के लोग अपने को देवी पूजक मानते हैं। प्रत्येक बुक्सा गांव में ग्राम प्रधान के घर के सामने ’ग्राम खेड़ी देवी’ जिसे भावनी भी कहा जाता है, का मन्दिर होता है। इनका मानना है कि देवी सम्पूर्ण ग्रामवासियों, फसल तथा पशुधन की रक्षा करती है। अतः यह वर्ष में दो सामूहिक रुप से देवी की पूजा करते हैं।
- बुकसाड़ के बुक्सा लोग ’साकरिया देवता’ की भी पूजा करते हैं। बुक्सा जनजाति में जादू-टोने का अत्यधिक प्रचलन रहा है। जादू-टोना तथा तंत्र-मंत्र विद्या के ज्ञाता को ’भरारे’ नाम से जाना जाता है। इनके प्रमुख्य त्यौहार चैती, नौबी, रामलीला, दीपावली, तेरस, होली आदि हैं। बुक्साओं का ’चैती’, वर्ष का प्रमुख मेला एवं त्यौहार है।
- बुक्सा जनजाति को मुख्यतः 5 उपजातियों में विभक्त किया जाता है। जिनमें कि जदुवंशी, पंवार, परतजा, राजवंशी, तुनवार हैं।
- देहरादून जनपद में ही, बुक्सा जनजातियों से मिलने वाली जनजाति ’महर बुक्सा’ भी निवास करती है। बुक्सा अपने को राजपूत घोषित करते हैं तथा दो या तीन वर्ष पश्चात् अपना स्थान परिवर्तन कर देते हैं।
- बुक्सा लोग हिंदू देवी-देवताओं, यथा शिव एवं दुर्गा तथा अपने स्थानीय देवताओं, यथा ज्वाल्पोदवी तथा हुल्कादेवी की उपासना करते हैं।
जौनसारी
- यह जनजाति मंडल की मुख्य जनजाति हैं, इस समुदाय के लोग देहरादून जनपद की चकराता तथा विकासनगर तहसीलों की 39 पट्टियों और 358 गांवो में निवास करते हैं, यह लोगा पाण्डवों को अपना पूर्वज मानते हैं।
- इण्डो आर्यन परिवार की यह जनजाति अपनी विशिष्ट वेशभूषा, परम्पराओं, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों एवं सुदृढ़ अर्थव्यवस्थाओं के लिए जानी जाती है।
- इस जनजाति को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। प्रथमतः वह वर्ग है, जिसमें ब्राह्मण एवं राजपूत हैं जो आर्थिक दृष्टि से संपन्न, भूमि के मालिक एवं कृषक हैं। दूसरी मध्य जाति के वर्ग हैं।
- इनमें लोहार, बाजगी, नाथ तथा जोगी हैं। यह वर्ग अपनी परम्परागत शिल्पकलाओं के माध्यम से आत्मनिर्भरता एवं सम्पन्नता की ओर अग्रसर हैं। तीसरा वर्ग आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ था, किन्तु वर्तमान में सामाजिक जागृति एवं अपने कौशल द्वारा स्थानीय समाज में प्रतिष्ठापूर्ण स्थान रखता है।
परम्पराएं
- जौनसारी विशिष्ट जनजतीय परम्परा में विवाह से पूर्व कन्या ’ध्यान्ती’ तथा विवाहोपरान्त ’रयान्ती’ कहलाती है। समाज में व्यक्तिगत झगड़ों को निपटाने के लिए, इनकी समिति ’खुमरी’ होती है।
- आवश्यकता पड़ने पर समिति की बैठक गांव के प्रमुख ’स्याणा’ द्वारा बुलाई जाती है। गांवो के झगड़े निपटाने हेतु ’खात खुमरी’ की व्यवस्था होती है। कृषि, ऊन-उद्योग, रस्सियां बनाना, टोकरियाँ बनाना और बकरे की खाल के थैले बनाना उनके प्रमुख कार्य हैं।
- पूर्वकाल में कतिपय जौनसारी जनजातियों में बहुपति प्रथा का प्रचलन था, जो अब अतीत का विषय बन चुका है। वर्तमान में बेवाकी, बोईदोदीकी और बाजदिया तीन प्रकार के प्रचलित विवाह हैं।
- बैवीकी अत्यन्त साधारण पद्धति का विवाह है। ’बोईदोदी’ विवाह में सगे सम्बन्धियों तथा परिचितों को आमंत्रित किया जाता है। किन्तु ’बाजदिया’ उच्च कोटि का शान शौकत का विवाह है, जिसमें कन्यापक्ष से वर के घर बाजे-गाजे के साथ बारात जाती है। पूर्व में दहेज में गाय दी जाती थी। गायकके सींग चांदी से मढ़े जाते थे।
वेशभूषा
- इस क्षेत्र के लोगों की वेशभूषा विशेष आकर्षक होती है। पुरुष चूड़ीदार पायजामा, बन्द गले का कोट तथा ऊनी या सूती टोपी पहनते हैं। महिला, लहंगा, जिसे घाघरा कहा जाता है तथा कुर्त्ता पहनती हैं तथा सिर पर ढाँट (एक बड़ रूमाल) बांधती है।
- शीत ऋतु में ऊनी कोट, बकरी एवं भेड़ के ऊन से बनी टोपी (डिगुवा), ऊन का पायजामा (झंगोला), ऊनाकार (चोड़ी) पहना जाता है। स्थानीय भाषा में बासकट को ’सलका’ या ’ठलका’ तथा कमीज को ’झगा’ कहते हैं।
धार्मिक विचारधारा
- इस जनजाति में धार्मिक आस्था, ईश्वर एवं स्थानीय देवी-देवीताओं का बाहुल्य है। ये महासू, वाशिक, बोठा, पवासी एवं चालदा को अपना कुलदेव एवं संरक्षक मानते है। जौनसारी अनेकानेक त्योहार मनाते हैं एवं इन अवसरों पर विविध प्रकार के नृत्य प्रस्तुत करते हैं।
- यहां के लोकनृत्य में जंगबाजी, णैन्ता, रासो, हारूल, परात-नृत्य, सामूहिक मंडवणा, तांदी, देवताओं की गाथाएं, मरोज आदि हैं। जौनसारी जनजाति का प्रमुख देवता ’महासू’ है।
प्रमुख त्यौहार एवं मेले
बिस्सू
ये पर्व बिस्सू बैसाखी से चार दिय पर्यन्त तक मनाया जाता है। इस अवसर पर सफेद मिट्टी से घर तथा गौशालाओं की पुताई की जाती है। इस त्योहार पर लोक-नृत्यों व गीतों के अतिरिक्त जंगबाजी नृत्य एवं (ठोउड़ा) का प्रदर्शन मुख्य आकर्षण का केन्द्र रहता है।
जागड़ा
भाद्रपद महीने में महासू देवता की मूति को स्नान कराया जाता है। रात्रि जागरण में देवता के गीत गाकर पूजा की जाती है। जागड़ा, हनोल में विशेष उत्साह में मनाया जाता है। टोंस नदी में स्नान कर चांदी के डोराया में महासू देवता को बिठाकर मन्दिर से बाहर लाया जाता है।
नुणाई
यह पर्व सावन माह में विशेष रुप से उन स्थानो में मनाया जाता है जहां भेड़ पालन का कार्य किया जाता है। इसी दिन भेड़ों की ऊन निकालने का कार्य आरम्भ किया जाता है।
दीपावली
जौनसार मे अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा दीपावली ठीक एक माह के बाद मनाई जाती है। अमावस्या की रात्रि को गांवा के सभी नर-नारी आंगन में एकत्र होकर ’होला’ (जलती हुई लकड़ी का पुंच) जलाकर पाण्डवों तथा महासू देवता के गीत गाते हैं। पुरुष ’होला’ लेकर किसी खेत में जाकर ’भयलो’ खेलते हैं। दूसरे दिन गांव के सयाणा के कानों में हिरयाली लगाकर आंगन में हरियाली गीत गाते हें। इस दिन को ’भिरूड़ी’ कहते हैं।
माघ त्यौहार
यह एक माह तक चलने वाला त्यौहार है। इसमें प्रत्येक घर में सभी रिश्तेदार आकर सामूहिक भोज करते हैं तथा नृत्य व गायन के साथ खुशियां मनाई जाती है।
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