उत्तराखण्डः मृदा संसाधन

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उत्तराखण्डः मृदा संसाधन – मृदा संसाधन हमारे मूल संसाधन है। ये वनस्पतियों का आधार प्रदान करती है तथा वनस्पतियों का प्राणिमात्र का जीवन निर्भर है। (उत्तराखण्डः मृदा संसाधन) हिमालयी क्षेत्रों में मिट्टी निर्माण, धरातलीय चट्टानों, रसायनों, जैविक तत्वों तथा सांस्कृतिक तत्वों से होता है। वस्तुतः मिट्टी का निर्माण में पांच तत्वों का योगदान होता है यथा मौलिक चट्टानों, जलवायु, वनस्पति तथा परिवर्तनशील समय। हिमालीय क्षेत्रों में मिट्टी का निर्माण अपेक्षाकृत तीव्रगामी प्रक्रिया का परिणाम है। उत्तराखण्डः मृदा संसाधन के इस पोस्ट में आपको उत्तराखण्ड की मृदा संसाधन की विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवायी जा रही है। पर्वतीय क्षेत्र की मिट्टियां अपरिपक्व, अविकसित एवं पूर्णतया नवीन हैं, जिनका कोई निश्चित संगठन स्वरुप नहीं मिलता है। (उत्तराखण्डः मृदा संसाधन)

मृदा एवं जलवायु वैज्ञानिकों ने प्रदेश में मिट्टी के वर्गीकरण के लिए ऊँचाई तथा मिट्टी पर स्थानीय जलवायु एवं वनस्पितयों के प्रभाव को आधार माना है-

उर्वरता एवं उपयोगिता
मिट्टी के प्रकार
सिंचाई की सुविधा एवं राजस्व निर्धारण

उर्वरता एवं उपयोगिता पर आधारित वर्गीकरण

प्रायः सभी पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि की उपयोगिता ग्रामीण अधिवासों से उसकी दूरी के व्युत्क्रमानुपाती पाई जाती है। यह उर्वरता पर निर्भर करती है सिजमें गांव की स्थिति केा केंद्र मानकर दूरी के अनुपात में उर्वरता एवं उपयोगिता का ह्रास पाया जाता है। इसीलिए उत्तम मूलयवान फसलें गांव केपास एवं निम्न केाटि की मोटे अनाज वाली फसलें दूरस्थ क्षेत्रों में पैदा की जाती हैं। फलस्वरूप ग्रामीण अधिवास के चारों और अच्छी भूमि का संकेद्रण निर्मित हो जाता है।

इस प्रकार का वर्गीकरण प्राकृतिक गुणों पर आधारित न होकर मानव प्रदत्त उर्वरता एवं कार्य करने की सुविधा पर निर्भरत करता है। राज्त्य के पर्वती क्षेत्रों में स्थानीय रुप से भूमि को निम्न तीन भागों में बांटा जाता है-

घर्या

पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक चढ़ाई-उतराई पर खाद ले जान श्रमसाध्य होता है। अतः ग्रामीण अधिवासों के निकटवर्ती खेत पर्याप्त मात्रा में निरंतर खाद प्राप्त करते रहते हैं। अच्छी उर्वराशक्ति के कारण उनमें अधिक उपजाऊ हो जाती है। मकानों से संलग्न खेत सर्वाधिक उपजाऊ होते हैं, क्योंकि उन्हीं में गोबर तथा खरपतवार का संग्रह किया जाता है। उन्हें स्थानीय भाषा में ’सग्वाड़ा’ कहते हैं।

बिचल्या भूमि

आवासों के निकट भूमि से लगे खेतों में थोड़ी बहुत गोबर की खाट डाल दी जाती है। अतः इनमें उपज अपेक्षाकृत कम हो जाती है, किंतु फसलों के प्रारूप कोई भिन्नता नहीं पाई जाती है। इस प्रकार की मिट्टी वाली भूमि बिचल्या कहलाती है।

बुण्या भूमि

अधिवासों से अपेक्षाकृत अधिक दूर वनों या चारागाह क्षेत्रों से संलग्न कृषि भूमि को ’बुण्या’ (जंगल वाली) भूमि कहा जाता है। इस भूमि में चढ़ाई-उतार तथा दूरस्थ होने के कारण खाद कभी नहीं डाली जाती है। यह भूमि अपने प्राकृतिक गुणों पर ही उपज दे पाती है। इस प्रकार की भमि में गहत तथा तोर जैसे खाद्यान्न ही उत्पन्न हो पाते हैं। इस भूमि को कभी-कभी वर्षों तक उपयोग में नहीं लाया जाता है।

मिट्टी के प्रकार पर आधारित वर्गीकरण

पर्वतीय छिछली मिट्टी

यह मिट्टी शुष्क एवं कंकड़-पत्थरयुक्त होती है तथा उच्चस्थ हिमानी हिमघर्षण वाले क्षेत्रों में पाई जाती है, जहां वनस्पति प्रायः नगण्य होती है। वनस्पति विहीनता मिट्टी की सघनता में बाधक है। अतः इन क्षेत्रों में चट्टानें नग्न रूप में पाई जाती है। यह मिट्टियों असंगठित व अपरिपक्व अवस्था में पाई जाती है।

एल्पाइन चरगाह (पाश्चर्स) मिट्टी

यह मिट्टी उच्चस्थ क्षेत्रों में घास के विस्तृत मैदानों में पाई जाती है, जिन्हें ’बुग्याल’ कहते हैं। यह शुष्क एवं कम उपजाऊ होती है, किन्तु इसमें क्षारीय तथा कार्बनिक तत्वों की प्रचुरता पाई जाती है।

उप-पर्वतीय मिट्टी

प्रदेश में देवदार, स्प्रूस ब्लूपाइन, चीड़पाइन आदि के वनीय क्षेत्रों में उच्च पर्वतीय ढालों पर इस प्रकार की मिट्टी पाई जाती है, जिसकी ऊपरी परत का रंग लाल-भूरा, अथवा पीला होता है। इन क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती है। इस मिट्टी में हयूमस की प्रधानता रहती है एवं कार्बनिक तथा नाइट्रोजन के तत्व कम मिलते हैं।

भूरी-लाल-पीली मिट्टी

इस प्रकार की मिट्टी का संगठन, बलुआ पत्थर, स्लेट तथा अभ्रक युक्त स्लेटी बलुआ पत्थर से निर्मित होती है। हिमालय की दक्षिणवर्ती पर्वतमालाओं में पाई जाने वाली वह मिट्टी कई रंगो में पाई जाती है। इन क्षेत्रों में सर्वाधिक पाया जाने वाला वृक्ष चीड़ है। अधिक ऊँचाई पर साल के वृक्ष भी मिलते हैं। यह मिट्टी अधिक उपजाऊ होने के साथ-साथ अधिक जल संचय भी करती है।

टर्शियरी मिट्टी

समस्त हिमालय के पाद प्रदेशों तथा शिवालिक पहाड़ियों में हल्की बलुई छिद्रमय मिट्टी पाई जाती है। इसका विस्तार तराई-भाबर तथा प्रदेश के मैदानी भागों, ऊधमसिंहनगर तथा हरिद्वार जनपदों में है। इनमें वनस्पति एवं जीवांश की मात्रा कम होती है। यह मिट्टी असंगठित स्थूल कणों वाली है। इसमें कछारी, रेतीली एवं चीका मिट्टी पायी जाती है। इसमें तेजाब एवं चूने की मात्रा कम होती है।

पुरातन जलोढ़ मिट्टी

  • इस प्रकार की मिट्टियों का निर्माण नदियों द्वारा लाई गयी जलोढ़ तथा काप से निर्मित होता है। इसका विस्तार प्रदेश में दक्षिणपूर्वी दून घाटी, गौला नदी तथा रामगंगा नदी के मध्य पाया जाता है।
  • कुमाऊँ में कोसी नदी की घाटी भी इस क्षेत्र के अन्तर्गत आती है। इसमें नाइट्रोजन, कार्बनिक एवं पौधवर्धक तत्व पाये जाते हैं, जिसमें कैल्शियम तथा मैग्नीशियम की प्रधानता रहती है।
  • लघु हिमालय और शिवालिक श्रेणियों के मध्य स्थित दूनघाटी की विस्तृत पट्टी में हल्की चिकनी, दोमट मिट्टी पाई जाती है, जो धान की खेती के लिए अत्यंत उपयोगी है। इसमें जीवांश लौहतत्व तथा चूना पाया जाता है।
  • नैनीताल जनपद में भीमताल के आसपास मध्य कल्प के शिष्ट, शैल, क्वार्ट्ज आदि शेलौं के विदीर्ण होने से बनी मिट्टियां पाई जाती है। कुमाऊँ की सभी झीलों की तलहटियों में कृषि-योग्य मिट्टी की अधिकता है, तथापि क्वार्ट्ज शैलों की उपस्थिति कहीं-कहीं इसे अनुपयुक्त रहती है।
  • मध्य हिमालयी ढालों पर मसूरी, चकराता, नैनीताल आदि क्षेत्रों में चूने एवं डोलोमाइट चट्टानों वाली मिट्टी पाई जाती है। वर्षा होने पर चूने का अधिकांश भाग बह जाता है तथा भू-क्षरण के कारण मिट्टी कृषि योग्य नहीं रहती।
  • देहरादून के सहस्त्रधारा क्षेत्र में महीन मटियार मिट्टी पाई जाती है, जो कृषि के लिए अत्यंत उपयोगी है। वस्तुतः राज्य की सीढ़ीनुमा खेतों वाली कृषि, उच्च शिखर क्षेत्रों में निक्षेपित मिट्टी के स्थायित्व पर निर्भर करती है।

सिंचाई सुविधा एवं राजस्व निर्धारण पर आधारित वर्गीकरण

मैदानी क्षेत्रों के विपरीत, जहाँ एक विशेष लगान निर्धारण क्षेत्र के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की मिट्टियों वाली भूमि की अपनी-अपनी लगान दरें होती है, पर्वतीय क्षेत्रों में मिट्टी के गुणों के अपेक्षा केवल सिंचाई की सुविधा को राजस्व निर्धारण का मानाक माना जाता है। इसी आधार पर भूमि को निम्न तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

तलाऊँ

यह घाटी तलों को सिंचित भूमि होती है। उपज की दृष्टि से यह भूमि द्वितीय श्रेणी की उपराऊँ (असिंचित) भूमि से तीन गुनी उत्तम मानी जाती है, किंतु पर्वतीय क्षेत्रों में इसका क्षेत्रफल अत्यंत कम है।

उपराऊँ

उपराऊँ या असिंचित भूमि को पुनः दो भागों में विभाजित किया गया है जिसमें उपराऊँ (प्रथम श्रेणी) तथा उपराऊँ (द्वितीय श्रेणी)। प्रथम श्रेणी की उपराऊँ भूमि, द्वितीय श्रेणी की उपराऊँ भूमि से डेढ़ गुना अच्छी मानी जाती है, जबकि द्वितीय श्रेणी की उपराऊँ भूमि इजरान भूमि से दोगुनी उत्तम मानी जाती है।

इजरान

वनों के किनारों या मध्य की भूमि, जो सर्वथा पथरीली, ढलाऊँ तथा अपरिपक्व एवं निकृष्ट होती है, इजरान कहलाती है। मिट्टियों का यह वर्गीकरण स्थानीय दशाओं के सर्वथा अनुकूल है, क्योंकि यह सदियों के सूक्ष्म निरीक्षण एवं अनुभवों पर आधारित है।

मृदा पेटियाँ

प्रदेश में विभिन्न भूगर्भिक एवं प्राकृतिक कारणों तथा स्थानिक दशाओं के अनुरूप भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार की मिट्टियाँ पाई जाती है। इन विभिन्नतओं ने अनेक मृदा-पेटियों का निर्माण किया है। डॉ. एस.पी. राय चौधरी ने भूगर्भिक बनावट, भूरचना, जलवायु, वनस्पति एवं समुद्रतल से ऊँचाई के आधार पर हिमालय क्षेत्रों में मृदा-पेटियों की निर्धारण किया है
निम्न पेटियों (शून्य से 910 मी. तक)
मध्य पेटी (910-1517 मी. तक)
निम्न पेटियों (1517-2123 मी. तक)
उच्चस्थ पेटी (2123-3034 मी. तक)

यद्यपि विभिन्न पुस्तकों में अलग-अलग जानकारी दी गई है। यह जानकारी उत्तराखण्ड समग्र ज्ञानकोश (डॉ. राजेन्द्र प्रसाद बलोदी) पुस्तक से उपलब्ध करवायी गयी है।


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